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पञ्चदशः सर्गः
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'पवतो ! तुम अचल होते हुए भी चलो । पृथ्वी रसातल में चली जाए। हे दिग्गजो ! तुम भी अपना स्थान बनालो । पृथ्वी और आकाश अब तुम कहां जाओगे ?
१२०.
वेडास्येति वदन्तीव, प्रोत्सर्पत्यस्त्रनिःस्वनैः । किंवदन्तीव वृत्तान्तः प्रादत्त जगतो भयम् ॥
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इस प्रकार कहते हुए, वृत्तान्त के साथ किंवदन्ती की भांति अस्त्र के शब्दों के साथ चारों ओर फैलते हुए बाहुबली के सिंहनाद ने जगत् को भयभीत कर दिया ।
१२१.
ततः कोटि : सपादापि चक्रपाणितनूरुहाम् ।
मृगालीव पुरोऽनश्यत् सिंहनादान्नृपार्श्वमेः ॥
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महाराज बाहुबली के सिंहनाद से भयभीत होकर भरत के सवा कोटि पुत्र मृग-समूह की भांति सुदूर अंचलों में भाग गए ।.
१२२. तस्थौ सूर्ययशाः स्वरमेकोऽथ समराजिरे । कल्पान्तपवनस्याग्रे, कः स्थाष्णुः स्वगिरि विना ?
भरत का बड़ा पुत्र सूर्ययशा अकेला ही उस रणभूमी में स्थिर खड़ा रहा । प्रलयकाल के पवन के समक्ष मेरू पर्वत के अतिरिक्त कौन स्थिर रह सकता है ?
१२३.
आपतन्तं तमालोक्याभ्यधात् तक्षशिलेश्वरः । आकर्णकृष्टकोदण्डश्चण्डिमाढ्यमदो वचः ॥
कानों तक खींचे हुए धनुष्य वाले बाहुबली ने, अत्यन्त क्रुद्ध और रण में प्रहार करने वाले सूर्ययशा को देखकर ऐसे कहा
१२४.
त्वयैव चक्र मृवंशः, क्षीरकण्ठैकवीरवान् ।
अतो मे कालदकल्यात् करो नोत्सहते त्वयि ॥
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'एकमात्र तुम्हारे से ही चक्रवर्ती का वंश वीर सन्तान वाला है । इसलिए मृत्यु की दुष्ट कल्पना से मेरा हाथ तुम्हारे पर प्रहार करने के लिए उत्साहित नहीं हो रहा है।
१२५ मन्मुखं त्यज तद् वत्स !, वात्सल्यं त्वयि मे स्थिरम् । अतो जीव मम क्रोधवह्नौ त्वं माहुतीभव ॥
'वत्स ! तुम मेरे सामने से हट जाओ । तुम्हारे प्रति मेरा वात्सल्य स्थिर है, इसलिए तुम सुखपूर्वक जीवित रहो । मेरी क्रोधाग्नि में तुम आहुति मत बनो ।'