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प्रथमः सर्गः
५८.
क्वचित्' सरामोऽथ सलक्ष्मणा क्वचित् क्वचित् ससुग्रीवबला सुधामभिः' । अलङ्कृता वीरवरैश्च तस्य पूः, प्रमोदमीक्ष्वाकुपुरीव साऽपुषत् ॥
तक्षशिला नगरी ने ईक्ष्वाकु नगरी अयोध्या की भाँति दूत की प्रसन्नता को पुष्ट किया । वह नगरी कहीं सुन्दरियों से, कहीं धनवानों से, कहीं अच्छे ग्रीवा वालों से तथा अच्छे प्रासाद और वीर सुभटों से अलंकृत थी ।
५६. स शंखकुन्देन्दुव लक्ष रोचिषो यशश्चयाकर्तुं रिवोद्भवत्क्षणान् । पुरीविहारानवलोक्य दूरतः सुधामयान् प्रापदतुच्छसंमदम् ॥
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दूर से ही तक्षशिला नगरी के सफेद कली से पुते हुए प्रासादों को देखकर दूत अत्यन्त आनन्दित हुआ । वे शंख, कुन्द और चन्द्रमा के समान धवल कांति वाले थे । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि वे उनके निर्माता के यशः- समूह हों; उत्पद्यमान उत्सव हों ।
६०. चलन्मृगाक्षीनवहेमभूषण प्रकामसंघट्टपतिष्णुरेणुभिः ।
विनिर्मितस्वर्णनगावनिभ्रमं स राजमागं गतवांस्ततः परम् ॥
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उसके बाद वह दूत राजमार्ग पर जा पहुँचा । उसे देखकर दूत को स्वर्णगिरि – मेरु की भूमि का भ्रम हो गया, क्योंकि उस मार्ग पर चलनेवाली सुन्दरियों के नव-निर्मित स्वर्ण आभूषणों के अधिक संघर्षण के कारणं स्वर्ण-रजकण नीचे गिर कर ऐसा भ्रम पैदा कर रहे थे ।
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६१. अनेक राजन्यरथाश्ववारणैर्निषिद्धसंचारमिवावतीरुहैः ।
वनायनं विश्वजने क्षणक्षणप्रदं प्रलीनारिमनोरथं ततः ॥
६२. क्वचिच्च वैडूर्यमणिप्रभाभरैः कृताम्बुद भ्रान्तिमनोज्ञविभ्रमम् । सपद्मरागांशुभिरपिताशनिभ्रमं सशुद्धस्फटिकाश्मकान्तिभिः ॥
१. इस श्लोक में तक्षशिला नगरी की अयोध्या से तुलना की गई है। कई शब्दों का श्लेष मननीय है । किं विशिष्टा सा पूः - क्वचित् सरामा -सस्त्रीका | अयोध्यापक्षे - सरामचन्द्रा । सलक्ष्मणा — लक्ष्मणाः — धनाढ्यास्तैः सह वर्तमाना । अयोध्यापक्षे - ससुमिनातनया | ससुग्रीवबला -- सशोभनशिरोधररूपा । अयोध्यापक्षे — सुग्रीवो — वानरेश्वरस्तस्य बलं - संन्यं, तेन सह वर्तमाना ।
२. सुधामभि: - इसको स्वतन्त्र मानने से इसका अर्थ होगा सु- श्रेष्ठ, धामभिः - प्रासादों से। और 'वीरवरैः' का विशेषण मानने से इसका अर्थ होगा...सु श्रेष्ठ, धामभिः - तेज से युक्त | ३. वलक्ष:-- सफेद (अवदातगौरशुभ्रवलक्षधवलार्ज ना: - अभि० ६ | २९ )
४. विहारः - प्रासाद |
५. स्वर्णनगः – मेरुपर्वत ।