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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
नगरी ने स्वयं की शोभा को देखने के लिए पृथ्वीतल पर इस सुन्दर दर्पण की रचना
की है ?'
५४.
अथ पुरीद्वारमवाप्य संकुलं, रथद्विपाश्वैः स कथंचिदासदत् । प्रवेशमावेश इवान्तराशयं ततक्षमं योगभृतां स विस्मयः ॥
नगरी के द्वार का मैदान बहुत विस्तीर्ण था फिर भी आने-जानेवाले रथों, हाथियों और अश्वों से वह संकुल हो रहा था । विस्मित दूत ने बड़ी कठिनाई से उसमें प्रवेश पाया, जैसे योगियों के विशाल क्षमा वाले अन्तर् आशय में आवेश बड़ी कठिनाई से प्रवेश पाता है ।
५५. पुरोन्तरं प्राप्य तटं
५६.
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पयोनिधे - रिवोरुमुक्ताफलरत्नराजितम् । चरो दृशं दातुमभून्न तु क्षमो, गजाश्वसंघट्टभयात् सदेपथुः ॥
दूत नगर के मध्यभाग में आया । वह स्थान समुद्र के तट की भाँति अत्यन्त विशाल और मोतियों तथा रत्नों से सुशोभित था । दूत हाथी और घोड़ों के संघट्टन के भय से प्रकंपित होने के कारण उस स्थान को देख ही नहीं सका ।
५७.
इहाणश्रेणिभिरद्भुतश्रिया, मनोरमाभिः
चतुष्क' मागाद् बहुवस्तुसंचय - प्रपातदुः प्रापधरातलं
कृतलोचनोत्सवः । त्वसौ ॥
दूत चौराहे पर आया । वहाँ अनेक प्रकार की वस्तुओं का संचय था । कहीं भी धरातल दिखाई नहीं दे रहा था । वहाँ अद्भुत संपदा से युक्त सुन्दर दूकानों की श्रेणियां थीं । उन्हें देखकर दूत की आंखों में उत्सव -सी उतर आया ।
सुवर्णकुम्भस्तनशालिनीं स्फुरत् सुवृत्तमुक्ताफलराशिसुस्मिताम् । विशालनेत्रां स्फुटविद्रमाघरां चतुष्कभूवारवधूं स ऐक्षत ॥
,
दूत ने चौराहे की भूमी को एक वेश्या के रूप में देखा । वह भूमी स्वर्ण के कलशरूपी स्तनों से मंडित, चमकदार गोल मोतियों की राशि के मिष से हंसने वाली, विशाल नेत्रों वाली ( वस्त्रों की विशाल राशि से युक्त ) तथा स्फुट विद्रुम रूपी अधरों वाली थी ।
१. सवेपथुः — सकम्पः ।
२. चतुष्कं—चौराहा (चतुष्पथे तु संस्थानं चतुष्कं – प्रभि० ४।५२.)
३. विशालनेत्रां – पृथुवस्त्रां, पक्षे विशालनयनां – पञ्जिका पत्र ४ । ४. वारवधू - वेश्या (अभि० ३।१६७ )