________________
प्रथमः सर्गः
विचार किया-क्या वीर रस मूर्त होकर यहाँ आ गया है अथवा कामदेव स्वयं यहाँ उपस्थित हुआ है ?' ५०. नियन्तु'रानेमिविवृत्तिहारिभि' गुरोविनेयैरिव जीर्णपद्धतिम् ।
अलङ्घयद्भिर्ह दयानुगामिभिः , सदा कुलीन रपि युग्यवाहिभिः ॥ रथैरथाङ्गध्वनिबन्धबन्धुरै - श्चलभिरावासवरैरिवोरुभिः । स कौतुकाकूतविलोलमानसः , प्रहृष्टदृष्टिर्नगरीमवाप सः ॥
युग्मम् । दूत ने रथों को देखा। वे रथ अपने नियन्ता द्वारा डाले हुए प्राचीन पथ का कभी उल्लंघन नहीं करते थे । वे चक्रधारा तक परावृत्ति करने के कारण मनोहर लग रहे थे । वे हृदयानुगामी और सदा कु-पृथ्वी पर लीन रहते थे। वे बैलों द्वारा खींचे जा रहे थे। वे पहियों की होनेवाली सतत ध्वनि से मनोज्ञ लग रहे थे। वे इतने विशाल थे कि मानो वे चलते-फिरते घर हों। कुतूहल के अभिप्राय से चंचलचित्त
और प्रमुदित नयनवाला वह दूत उन रथों को देखता हुआ तक्षशिला नगरी में पहुंचा। ५२. चरः पुरः पू:परिखां पयोभृतां , विलोक्य पाथोधिरयं किमागतः।
निषेवितुबाहुबलिं बलात् • स्वयं , निजां श्रियं रक्षितुमित्यचिन्तयत् ॥
दूत ने आगे :नगरी की खाई को पानी से भरा हुआ देखकर सोचा-क्या समुद्र बाहुबली की उपासना करने के लिए तथा बलात् अपनी लक्ष्मी की रक्षा करने के लिए यहाँ स्वयं आ गया है ?'..
५३. चरः सरत्नस्फटिकाश्मभित्तिकं , विलोक्य वप्रं त्विममूहमातनोत् ।
श्रियं पुरा वीक्षितुमात्मनः क्षिता - वयं किमादर्शव रः प्रकल्पितः ॥ दूत ने रत्न-खचित तथा स्फटिक पत्थरों से निर्मित वप्र को देखकर सोचा-'क्या इस
१. नियन्ता-सारथि (नियन्ता प्राजिता..... सारथी-अभि० ३।४२४) २. आनेमि-आचक्रधार,विवृत्तिः–परावृत्तिश्चंक्रमणं, तेन हारिभिः मनोज:--रथैः (पञ्जिकापन ४) ३. जीर्णपद्धतिम्-पुराणमार्गम् । ४. कुलीनः-कु:—पृथ्वी, लीन :-प्रसक्तः—पृथ्वी से लगे रहने वाले। ५. इस श्लोक में रथ और विनेय-शिष्य की तुलना की गई है। विनेयपक्षे-किं कुर्वद्भिः विनेयः
गुरोः जीर्णपद्धति-वृद्धपंक्ति अलंघयद्भिः । आनेमि-आमर्याद, विवृत्ति-विशिष्टवर्तनं
हरंति-गृण्हन्ति, इत्येवंशीलास्तः । कुलीन–कुलोद्भवः । (पञ्जिका पत्र ४) ६. रथाङ्गध्वनिबन्धबन्धुरैः-चक्रनादबंधमनोजः (पञ्जिका पत्र ४)