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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६. स सिधुरैः सन्निहिताभ्रमुप्रिय - भ्रमै भ्रमभ्रामरवद्धितधः ।
चलन्नगेन्द्र रिव वारण'च्छलात् , कपोलपालीविगलन्मदाम्बुभिः ॥ . ४७. रदद्वयोचिन्हितवप्रभित्तिभि - निजप्रतिच्छायरुषा पुनः पुनः। निषादिदूरीकृतमानवे पथि , व्रजद्भिरानन्दितलोचनो ययौ ।
-युग्मम् । वह दूत हाथियों के साथ-साथ चल रहा था। उसकी आँखें आनन्द-विभोर हो रही थीं। वे हाथी समीपस्थ ऐरावत हाथी का भ्रम पैदा कर रहे थे। कुंभस्थल पर मंडराने वाले भ्रमरों के कारण उनका क्रोध बढ़ रहा था। वे ऐसे लग रहे थे मानो कि हाथियों के मिष से वे चलते-फिरते हिमालय पर्वत हों। उनके कपोल के कोने से मद झर रहा था। अपनी प्रतिच्छाया से रुष्ट होकर उन्होंने अपने दोनों दाँतों से दुर्ग की भित्तियों को चिन्हित कर दिया था। महावत मनुष्यों को मार्ग से हटा रहे थे । उस निर्विघ्न मार्ग पर वे हाथी संचरण कर रहे थे।
"४८. विरोधिलक्ष्मीकबरीविडम्बिन, जयश्रियः पाणिमिवासि मुद्वहन् ।
करेण शौर्योल्लसदासुरीकचः, • पदातिवर्गों ददृशेऽमुना पुरः॥.. दूत ने आगे चलकर पैदल सैनिकों को देखा। वे अपने हाथों में विरोधियों की लक्ष्मी की केश-रचना को विडंबित करनेवाली तलवारों को ग्रहण किए हुए थे। मानो कि वे विजयश्री के हाथ को पकड़े हुए हों। पराक्रम से उनकी दाढ़ी-मूंछ के केश उल्लसित हो रहे थे।
४६. अयं रसो वीर इवाङ्गवान् स्वयं , रतीश्वरों वा किमिहागतः पुनः।
क्वचिद् धनुर्बाणधरं भटोच्चयं , स वीक्ष्य तत्रैवमतर्कयत्तराम् ॥ नगर के परिसर में कहीं-कहीं धनुर्धारी भटों के समूह को देखकर दूत ने यह
१. सिन्धुरः-हाथी (स्तम्बेरमद्विरदसिन्धुरनागदन्तिन:-अभि० ४।२८३) २. अभ्रमप्रियः-ऐरावत हाथी (ऐरावतो हस्तिमल्लः श्वेतगजोऽभ्रमुप्रिय:-अभि० २।६१) ३. वारणः-हाथी (मातङ्गवारण...... अभि० ४।२८३) ४. पाली-कोना (कोटि: पाल्यस्र इत्यपि—अभि० ४७६) ५. निषादी–महावत (हस्त्यारोहे सादियन्तृमहामात्रनिषादिन:-अभि०३।४२६) ६. कबरी—केश-रचना (केशवेषे कबर्यथ–अभि० ३।२३४) ७. असिः-तलवार । ८. आसुरीकचः-दाढी-मूंछ के बाल-(आसुरीकचा:-कूर्चकेशा:-पञ्जिका पत्र ४).
अभिधान चिन्तामणि कोश में दाढी का नाम 'मासुरी' है । कवि ने 'आसुरी' का प्रयोग किया है। १. रतीश्वर :-कामदेव।