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प्रथमः सर्गः
४२. पुरी परीतेयमनेकशो हयै . नंभोंशुमत्सप्ततुरङ्गमाङ्कितम् ।
स्मयाद् विहस्येति खुरोद्धरं रजः , क्षिपभिरुच्चैश्चलताञ्चितक्रमः ॥ ४३. वनायुदेव्यैः पवनातिपातिभि-स्तिर : क्षिपद्भिस्त्विति वारिधौ रजः ।
अयं रजोभिर्यदि पूर्यतेऽखिलो , रयस्तदा नः स्खलति क्वचिन्न हि ॥ ४४. खलूरिकाकेलिनिबद्धलालसै':, ससैन्धवैः२ सादि मनोनुगामिभिः ।
नितान्तमभ्याशवशाल्पितक्लमः, समुच्छलत्केसरकेशराजिभिः ॥ ४५. क्रमं विनीतैरिव नावलचितु, कृतप्रयत्नं परिधारितैर्मुहुः । अखेदमेदस्विबलै महाभुजै - स्तरङ्गितास्तस्य मुदस्ततो हयः॥
-चतुभिः कलापकम् ।। जब वह दूत तक्षशिला में आया तब उसने वहाँ अनेक प्रकार के घोड़े देखे । वे घोड़े चपलता युक्त चरणों से चलते हुए तथा अहंकारवश परिहास करते हुए अपने खुरों से उखड़े हुए रजःकणों को आकाश में यह मानकर उछाल रहे थे कि यह तक्षशिला नगरी अनेक घोड़ों से संयुक्त है, जबकि यह आकाश सूर्य के केवल सात घोड़ों से ही अंकित है। पवन से भी अति तीव्र गति से चलनेवाले 'धनायु देश' के घोड़े समुद्र में रजःकणों को तिरछी फेंक रहे थे । वे मान रहे थे कि यदि यह सारा समुद्र रजःकणों से भर जाए तो उनका वेग कहीं भी स्खलित नहीं होगा। वनायू देश के घोड़ों के साथ-साथ सिन्धु देश के घोड़े भी थे। वे शस्त्राभ्यास की भूमि में क्रीड़ा करने की लालसावाले, घुड़सवार के मनोनुकूल चलनेवाले तथा नितान्त अभ्यास के कारण न्यून श्रमवाले थे। वे गले पर के उछलते हुए केशों से. शोभित हो रहे थे। विनीत शिष्यों की भांति क्रम (चरण-विन्यास) का उल्लंघन न हो, इस दृष्टि से प्रयत्नपूर्वक चलनेवाले, अनायास पुष्ट पराक्रम और महाभुजावाले वे घोड़े दूत के हर्ष को तरंगित कर रहे थे। .
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१. खलूरिका-शस्त्राभ्यास करने का मैदान-(खुरली तु श्रमो योग्याभ्यासस्तद्भूः खलूरिका
अभि० ३।४५२) २. सैन्धव :-सिन्धु देश में उत्पन्न अश्व ।। ३. सादी-घुड़सवार (अश्वारोहे त्वश्ववारः, सादी च तुरगी च सः-अभि० ३।४२५) ४. केसरकेश-अश्व के गलों के केश । ५. अखेदमेदस्विबल:-अनायासपुष्टपराक्रमः (पञ्जिका पत्र ४)