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________________ १२ सार भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३८. सुगेयकृष्टाभिरुदनकन्धरं , मृगाङ्गनाभिः स विलोकितः क्वचित् । स शालिगोपीभिरपीक्षितः क्वचित् ,सविभ्रम विभ्रमवामदष्टिभिः ।। वह दूत चला जा रहा था। कहीं-कहीं मधुर ज्ञेय से आकृष्ट हरिनियां ऊंची ग्रीवा किए हुए उसे देख रही थीं। कहीं-कहीं चावल के खेतों की रखवाली करनेवाली, कमनीय कटाक्ष दृष्टिवाली स्त्रियों ने उसे विभ्रम के साथ देखा। ३६. स राजधानीभिरनङ्गभूपते - रसस्य पूर्वस्य च केलिसदमभिः । तरङ्गितामोदभरः पुरन्ध्रिभिः , व्यलङ्घत ग्रामपुराण्यनेकशः ॥ कामदेव की राजधानी और शृंगार रस की क्रीडागृह स्वरूप स्त्रियों के पास से गुजरते हुए दूत का आमोद तरंगित हो रहा था। इस प्रकार उसने अनेक गांव और पुर पार किए। ४०. चरः पुरो गन्तुमथहत त्वरां, महीधरोत्साह इवाङ्गवानऽयम् । न हि त्वरन्ते क्वचिदर्थकारिणो , विलम्बनं स्वामिपुरो हिताय नो॥. 'दूत आगे बढ़ने के लिए शीघ्रता करने लगा, मानो कि महाराज भरत का उत्साह "मूर्तिमान हो रहा हो । प्रयोजन की पूर्ति करनेवाले पुरुष क्या त्वरा नहीं करते ? अवश्य करते हैं, क्योंकि विलम्ब करना स्वामी के लिए हितकर नहीं होता। :४१. विलचितावा कतिचिद् दिनैश्चरः , पुरीप्रदेशान् जितनाकविभ्रमान् । सरःसरित्काननसंपदाञ्चिता - नुपेत्य संप्रापयदुत्सवं दृशोः ॥ कई दिनों तक चलते-चलते मार्ग को पार कर दूत तक्षशिला के पासवाले प्रदेशों में आया। वे प्रदेश स्वर्ग की शोभा को जीतनेवाले तथा तालाब; नदी और कानन की संपदा से युक्त थे। उन्हें देखकर दूत की आंखों में उत्सव-सा छा गया। १. शालिगोपीभिः-कलमक्षिकाभिः । २. सविभ्रमं–सविलासं। ३. कमनीय कटाक्ष दृष्टिवाली नारियों ने । ४. पूर्वस्य रसस्य-प्रथमस्य रसस्य-शृगाराख्यस्य रसस्य। ५. केलिसद्मभिः-क्रीडावसतिभिः । ६. पुरन्ध्री-वैसी स्त्री जिसके पुत्र, नौकर आदि हों। (अभि० ३।१७७) पुरंध्रि शब्द से 'ईप' का आगम विकल्प से होता है-पुरंधिशब्दस्य ईपागमो वा (पञ्जिका पत्र ३) यहाँ यह शब्द 'इकारान्त' स्त्रीलिंग में प्रयुक्त है । ७. नाक :-स्वर्ग (भुविस्तविषताविषौ नाक :-अभि०२।१)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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