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प्रथमः सर्गः
३३. विधेरिवास्मादुहितै हितैः पुनः फलान्यलभ्यन्त कलिक्रमाथिभिः । प्रभुः स एवात्र यतो विशेषतः, फलाफलावाप्तिरनुत्तरा भवेत् ॥
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दूत ! युद्धार्थी शत्रु और चरणार्थी मित्र विधाता की भांति हमारे स्वामी बाहुबली से अपना-अपना फल पा जाते हैं । इस संसार में वही प्रभु है जिससे कार्यानुरूप फल और अफल की अनुत्तर प्राप्ति होती है ।
३४.
स किन्नरो नात्र स नात्र मानवः स कोपि विद्याधरपुङ्गवो न हि । न येन कर्णेषु दधे नृपार्श्वभे यशः शरच्चन्द्रकरातिसुन्दरम् ॥
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३५.
इस लोक में वह कोई किन्नर नहीं है, वह कोई मनुष्य नहीं है और वह कोई विद्याधर पुंगव नहीं है जिसने महाराज बाहुबली के शरद् चन्द्रमा की किरणों से भी अति मनोज्ञ यशोगाथा को अपने कानों से न सुना हो ।
गिरं जनानामिति मानशालिनीं निशम्य तेनेति हृदा व्यतत । बलं प्रभोर्मे बलिनापि मा वृथा, महीभृति स्यात् करिणीपतेरिव ॥
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जनता की मान से परिपूर्ण वाणी को सुनकर दूत ने मन ही मन यह तर्कणा की कि मेरे पराक्रमी स्वामी महाराज भरत का बल बाहुबली में वृथा न हो जाए, जैसे यूथपति हाथी का बल पर्वत में वृथा हो जाता है ।
३६. मदीयभूपाम्बुदतूर्यगजित ध्वनौ
प्रवृत्ते
शरभीभवन्नयम् । भर्वतोऽसून् किल मोक्ष्यते रणे, न च स्मयं हि प्रथमोभिमानिनाम् ॥
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११.
जब मेरे . स्वामी भरतरूपी मेघ - वाद्य की गर्जारव ध्वनि प्रवृत्त होगी तब अपने वीर सुभटों से परिवृत बाहुबली अष्टापद की भांति उछलता हुआ युद्ध में अपने गंवा देगा किन्तु अभिमान नहीं छोड़ेगा, क्योंकि यह बाहुबली अभिमानियों में प्रथम है ।
३७. चरो विचिन्त्येति हृदा गिरा ततो, जगाद चैषां पुरतो न किञ्चन । निशम्य कर्णान्तिकटु प्रियं वचो, वदन्ति वाचा न हि वाग्मिनः क्वचित् ॥
दूत ने अपने मन में इस प्रकार सोचा किन्तु जनता के समक्ष उसने कुछ भी नहीं कहा । जो वापट होते हैं वे कर्णकटु या प्रिय वचनों को सुनकर भी कहीं कुछ नहीं बोलते
१. अहितः - शत्रु (वैर्यहितो जिघांसुः - अभि० ३।३ε३)
२. हितः - मित्र ।
३. कलिक्रमाथिभिः क्लेशांहिसमीहकैः ।
४. महीभृति के दो अर्थ हैं— (१) राजा में । ( २ ) पर्वत में ।