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________________ २६. ३०. दूत ! शत्रुओं के बल से ताम्र ( रक्तिम ) बना हुआ बाहुबली का तेज महा प्रताप रूपी अग्नि में तप्त होकर राजाओं के योग से प्रतिपल परिपूर्ण अमल प्रभाराशि से युक्त कनक हो रहा है, जैसे तीव्र अग्नि में तप्त ताम्र पारद के योग से स्वर्ण बन जाता है । १ महाप्रतापानलतापितं द्विषद् - बलैकतास्र च रसेन्द्रयोगतः । अमुष्य तेजः कनकं दिने दिने, भवत्यनू नरमलप्रभामरैः ॥ ३१. भरतबाहुबलि महाकाव्यम् न सांयुगीनों मम कश्चिदाहवे', विचिन्तयत्येवमनिशं त्वसौ । अतः क्षितीशो मनुते समागतं रणं क्षणीकृत्य महाभवतः ॥ 1 हमारे स्वामी सदा यह सोचते हैं कि युद्ध में मेरा सामना करनेवाला कोई भी रणवीर नहीं है । अतः महान् भटों से परिवृत हमारे राजा समागत युद्ध को उत्सव के रूप में स्वीकृत करते हैं । अयं विपक्षांस्तृणवन्नुमन्यते त्वयं विपक्षैरतिरिच्यते गिरेः । अयं धुनीते रिपुसञ्चयं क्षणात् त्वयं न कैश्चित् सुरशैलवद् द्रुतः ॥ 1 • ,, बाहुबली अपने शत्रुओं को तृणवत् अधिक महान् मानते हैं । ये शत्रुओं के ये मेरु पर्वत की भांति किसी से कंपित नहीं होते । ३२ अनेन राज्ञा रजनीमणीयितं तुच्छ मानते हैं । शत्रुगण इन्हें पर्वत से भी समूह को क्षण-भर में कंपित कर देते हैं और तदान्यभूपैः किल तारकायितम् । अतो निदेशस्य नृपैर्न लङ्घ्यते त्वसौ निबेशं न दधाति कस्यचित् ॥ " हमारे राजा चन्द्रमा के समान और दूसरे सभी नृप ताराओं के सदृश हैं । इसलिए कोई भी नृप इनके आदेश का उल्लंघन नहीं करता । किन्तु ये किसी का भी आदेश स्वीकार नहीं करते । १. ताम्र -- रक्तिम | ताम्र - तांबा | २. रसेन्द्रः – रसायाः — भूम्याः, इन्द्रः - स्वामी - राजा । रसेन्द्र – पारद । ३. पाठान्तरं - ऽधिकं विराजत्यमलप्रभाभरम् । ४. सांयुगीन : - युद्ध में निपुण ( सांयुगीनो रणे साधु : - अभि० ३ | ४५७ ) ५. आहव : - युद्ध ( संग्रामाहव • अभि० ३ | ४६० ) ६. क्षणीकृत्य – उत्सवीकृत्य । ७. रजनीमणीयितम् — चन्द्रायितम् । ८. निदेश: — आदेश, आज्ञा ( आज्ञा शिष्टिनिराङ निभ्यो देशो अभि० २ १६१ ).
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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