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________________ प्रथमः सर्गः दूत ! बाहुबली का नाम भी वैरियों के शिर में अचिकित्स्य शूलरोग पैदा करने वाला है । हमारे उन स्वामी के समक्ष नतमस्तक होने के अतिरिक्त सारे पृथ्वीतल में इस शू लरोग की चिकित्सा के लिए कोई रसायन नहीं है। २५. भुजंगराजं वसुधैकधुर्वहं , भुजस्य दायादमवेक्ष्य नो नपम् । प्रयान्तमित्येत्य जगाद नागराट् , रसा सहस्र रुपगीयते भवान् ॥ दूत ! नागराज ने हमारे स्वामी को भुजंगों के अधिपति (नागजाति के स्वामी), भूमि की धुरा को एकमात्र धारण करने वाले और बाहु के स्पर्द्धक जानकर उनके प्रयाण के समय आकर कहा–'राजन ! मैं हजार रसनाओं से आपका गुणगान करता हूं !' २६. अमुष्य सैन्याश्वखुरोद्धतं रजः, पति द्विजानां सकलङ्कमाधितः । सकंपमारातिमनोप्यहनिशं , वरं नदीनामपि पङ्किलं किल' ॥ यह विश्रुत है कि बाहुबली की सेना के घोड़ों के खुरों से उठे हुए रजकणों ने चन्द्रमा को कलंकित कर दिया, शत्रुओं के मन को रात-दिन कंपित किए रखा और समुद्र को पंकिल कर डाला । २७. स्वतातजन्मोत्सववारिणाचितः, स्वयं सुमेरुर्गमितो न चूर्णताम् । . महेन्द्रमुष्ट्या शतकोट्यऽहीनया , वयं हृदैवं परितर्कयामहे ॥ हम मन में ऐसी वितर्कणा करते हैं कि महाराज बाहुबली की वज्र के समान शक्तिशाली मुट्ठी ने स्वयं सुमेरु पर्वत को चूर्ण नहीं किया क्योंकि वह पर्वत उनके पिता ऋषभ के जन्मोत्सव के जल से अचित था । (अन्यथा मुट्ठी उस पर्वत को चूर्ण कर डालती। २८. जगत्त्रयो यस्य च कीर्तिमल्लिका , दधात्यजन शिरसा विकाशिनीम् । स एक वीरो भुवनत्रये धनु - बित्ति कंदर्प इवाफलं न हि ॥ तीनों लोक जिसकी विकसित कीर्तिरूपी मल्लिका को सदा शिर पर धारण करते हैं, उस त्रिलोकी में एकमात्र वीर बाहुबली कामदेव की भांति अचूक निशाने वाले धनुष को धारण करते हैं। १. दायादमवेक्ष्य~दायादं—स्पर्द्धकं, अवेक्ष्य-विचार्य । २. रसा-जिह्वा। ३. द्विजानां पति-चन्द्रमा को। ४. नदीनां वरं—समुद्र को। ५. किल-सुना जाता है (किलेति श्रूयते-पञ्जिका पत्र ३)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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