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. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६३. चलबलाका भ्रमदं सविद्रुमार्जुनांशुभिर्दत्तसुरायुषभ्रमम् । चरो नृपद्वारमवाप वेत्रिभिनिवारितस्वरगमागम क्रमात् ॥
-त्रिभिविशेषकम् ।
राजमार्ग से चलता हुआ दूत राज-प्रासाद के द्वार पर पहुंचा। अनेक राजाओं के रथों, घोड़ों और हाथियों के कारण उसमें संचरण करना निषिद्ध सा हो रहा था जैसे कि वृक्षों के कारण वनमार्ग संचरण योग्य नहीं रहता। वह द्वार सभी लोगो की आंखों को आनन्दित तथा शत्रुओं की अभिलाषा को क्षीण कर रहा था। वह कहीं-कहीं वैडूर्य और मणियों के किरण-समूहों से बादल की भ्रान्ति पैदा कर रहा था । वह भनोज्ञ और सुन्दर था। वह पद्मराग मणि की किरणों से विद्युत् का भ्रम, विशुद्ध स्फटिक पत्थर की कान्ति से चलती हुई. बलाकाओं (बगुलियों) का भ्रम और प्रवाल के साथ स्वर्ण किरणों के मिश्रण से इन्द्रधनुष का भ्रम पैदा कर रहा था। द्वारपालों ने स्वच्छन्दता पूर्वक उसके भीतर आने-जाने का मार्ग अवरुद्ध कर डाला था।
६४. चरन्तमायान्तमुदीक्ष्य वेत्रिणः , क एष वैदेशिक इत्युदीरयन् । ..
चरः प्रभोः कस्य कुतस्त्वमागतः , प्रभोनिदेशात् प्रविविक्षुरत्र नः॥ द्वारपालों ने दूत को आते हुए देखकर सोचा-'यह कौन परदेशी व्यक्ति पा रहा है ?' जब वह पास में आया तब उन्होंने पूछा.—'तुम किस राजा के दूत हो? तुम कहां से आए हो ? हमारे स्वामी बाहुबली की आज्ञा से ही तुम भीतर प्रवेश पा सकते हो।' ६५. अयं बमाणे प्रथमस्य चक्रिणश्चरो भवत्स्वामिनमागतस्ततः।
अखण्डषट्खण्डनरेन्द्रमौलिभिनतक्रमः श्रीभरतः प्रशास्ति याम् ॥
दूत ने कहा-'मैं प्रथम चक्रवर्ती महाराज भरत का दूत हूं। आपके स्वामी महाराज बाहुबली के पास आया हूं। मैं उस अयोध्या या कौशल देश से आ रहा हूं जहां के अनुशास्ता महाराज भरत हैं, जिनके चरणों में छह खंडों के राजा नतमस्तक होते हैं ।
६६. ततो निबद्धाञ्जलयो नृपं च ते , समेत्य नत्वा स्मवदन्ति वेत्रिणः ।
चरो युगादेस्तनयस्य चक्रिणो , निवारितो द्वारि विलम्बते' विभो ! ॥ तब वे द्वारसाल महाराज बाहुबली के पास गए और हाथ जोड़, नतमस्तक होकर
१. बलाका-बगुली (बलाका विसकण्टिका-अभि० ४।३६९) २. विद्रुमः-प्रवाल । अर्जुनं-स्वर्ण (तपनीयचामीकरचन्द्रभर्माऽजुन-पभि ४।११०)
सुरायुधं-इन्द्रधनुष । ३. विलम्बते-प्रतीक्षते (पत्रिका पत्र ५)