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प्रथमः सर्गः
बोले-'प्रभो ! वृषभ के पुत्र चक्रवर्ती भरत के पास से एक दूत आया है । वह द्वार पर निवारित होकर आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है।' ६७. नटीकृतानेकमहीभुजो भ्र वः , ससंज्ञयादेशविधायिवेत्रिभिः ।
प्रवेशयामास चरं धराधिपो , विवेकवान् न्यायमिवातुलैर्गुणैः ॥
अनेक राजाओं को नचानेवाली भौहों का संकेत पाकर आज्ञाकारी द्वारपालों ने दूत को अन्दर प्रवेश करने दिया, जैसे विवेकी पुरुष असाधारण गुणों से न्याय को प्रवेश कराता है।
६८. विचित्रचित्रं मणिभिः समाचित' , परिज्वलत्काञ्चनभित्तिभूषितम् ।
ततः प्रविष्टः स नपालयान्तरं , विशिष्टमिन्द्रालयतोऽपि सच्छियः॥
बाहुबली का आदेश पाकर दूत ने राज-प्रासाद के अन्तराल में प्रवेश किया। उसका भीतरी भाग विविध चित्रों से चित्रित, मणियों से खचित, चमकदार स्वर्ण की भित्तियों से विभूषित और वैभव की दृष्टि से इन्द्रालय से भी विशिष्ट था।
६९. चरः सचित्रापितसिंहदर्शनाद् , विल धिताधोरण तीव्रयत्नतः ।
गजाद विवृत्तान् मदवारिसौरभागतद्विरेफात् क्वचिदप्यशङ्कत ॥ प्रासाद के किसी एक भाग में दूत ने देखा कि एक हाथी चित्रित सिंह के दर्शन से भयभीत होकर पीछे मुड़ गया है। उसने महावत के अंकुश प्रहारों की कोई परवाह नहीं की। उस हाथी के झरते हुए मद की सुगंधी से भौंरे आ रहे थे । दूत उस हाथी से डर गया।
७०. स इन्द्रनीलाश्ममयैकमण्डपं , विलोक्य मेघागममेघविभ्रमम् ।
गजेन्द्रगर्जारव'नृत्तबहिणं , बभार संभारमयं मुदां ततः ॥ उस दूत ने इन्द्रवील मणियों से निर्मित मंडप को देखा। वह वर्षा ऋतु के मेघ जसा शोभायमान हो रहा था। वहाँ हाथियों की चिंघाड़ को सुनकर (उसे मेघ का गरिव मानकर) मयूर नाचने लगे। उस मंडप को देख दूत अत्यन्त हर्षित हुआ। ७१. ततौजसं सोऽथ सभासदां वरविराजितं तीक्ष्णकरं ग्रहैरिव ।
शशाङ्कमृक्षरिव वासवं सुरैरिव द्विपेन्द्र कलभरिवानिशम् ॥ १. समाचितं-खचितं । २. आधोरण:-महावत (माधोरणा हस्तिपका गजाजीवेभपालका:-अभि० ३।४२६) ३. गर्जारवः-हाथियों के चिंघाड़ की आवाज (गर्जस्य मारवः अथवा गर्जायाः रवः)।