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ततायतां द्या'मिव सर्वतः समां सभां सुधर्मामिव संश्रितश्रियम् ॥ घृतकमूर्ति बहुमूततां गतं सरत्नचामीकरभित्तिसंक्रमात् ॥ अपूर्वपूर्वाद्रिमिवांशुमालिनं महामृगेन्द्रासनमप्यधिष्ठितम् । महोभिरुद्दीपित सर्व दिग्मुर्खर्व पुर्दुरालोकमलं च बिभ्रतम् ॥ मिमानमन्तर्न दधानमुच्चकैर्यशो बहिर्यातमिवैकतां गतम् । सुधाब्धि डिण्डीरभरानवस्कर, सितातपत्रच्छलतो नृपोपरि ॥ किमुर्वशीभिः सुहृदा बलद्विषा 'भ्युपास्तुमेनं प्रहिताभिरागतम् । विलासिनीभिर्ददतीभिरित्यमुं वितर्कमुद्वेल्लितचामरोभयम् ।' प्रकाममंसापितहारहारिणं, सनिर्भरं मेरुमिवोन्नतप्रथम् । यशः प्रतापाभिहतेन्दु भास्कराश्रितं स्वकर्णापित कुण्डलच्छलात् ॥ भुजद्वयीशौर्यमिवाक्षिगोचरं चरो महोत्साहमिवाङ्गिनं पुनः । चकार साक्षादिव मानमुन्नतं वसुन्धरेशं वृषभध्वजाङ्गजम् ।।
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भरतबाहुबलि महाकाव्यम्
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उस मण्डप में विराजमान ऋषभ के पुत्र महाराज बाहुबली को साक्षात् देखा । उनका तेज चारों ओर फैल रहा था । वे श्रेष्ठ सभासदों से वैसे ही शोभित हो रहे थे जैसे सूर्य ग्रहों से, चन्द्रमा नक्षत्रों से, इन्द्र देवताओं से और यूथपति हाथी अपने कलभों (तीस वर्ष की उम्र वाले हाथियों) से शोभित होता है । वे सभा की शोभा से युक्त थे। उनकी सभा सुधर्मा सभा की भाँति चारों ओर से सम और आकाश की भाँति लम्बी-चौड़ी थी । बाहुबली एकरूप अकेले ) थे किन्तु मणियों से खचित स्वर्णमय भित्तियों में प्रतिबिम्बित होने के कारण बहुरूप हो रहे थे । वे महान् सिंहासन पर आसीन थे । वे उस समय ऐसे लग रहे थे मानो कि अपूर्व उदयाचल पर सूर्य आसीन हो । वे अपनी रश्मियों से सभी दिशाओं के आनन को उद्दीपित कर रहे थे । उनका शरीर तेज के कारण दुष्प्रेक्ष्य हो रहा था ।
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- सप्तभिः कुलकम्
महाराज बाहुबली के शिर पर श्वेत छत्र था । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि उस छत्र के मिष से वे यश को धारण कर रहे हैं । वह यश क्षीरसमुद्र के फेनों की तरह
१, द्यां - आकाशम् ।
२. डिण्डीर : - समुद्र का फेन ( डिण्डीरोऽब्धिकफः फेनः – अभि० ४ । १४३ ) । अनवस्करं – विशुद्ध ( निःशोध्यमनवस्करम् — प्रभि० ६ । ७२ )
३. उर्वशी—अप्सरा (स्वः स्वगिववोऽप्सरस : स्वर्वेश्या उर्वशीमुखाः - श्रमि० २/९७)
४. बलद्विट् – इन्द्र ( बल नामका राक्षस है शत्रु जिसका वह अर्थात् इन्द्र ), ५. उन्नतंप्रथम् — उत्तुंगप्रख्यानं - उन्नत ख्यातिबाले ।