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प्रथमः सर्गः
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अत्यन्त विशुद्ध (धवल ), अन्दर न समाता हुआ, एकीभूत होकर सारा का सारा बाहर आ गया हो - ऐसा प्रतीत हो रहा था ।
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उनके दोनों ओर दो रमणियां चामर डुला रही थीं । उन रमणियों को देखकर मन में यह वितर्कणा उत्पन्न हो रही थी कि क्या महाराज बाहुबली के मित्र इन्द्र उर्वशियों (प्रा) को बाहुबली की उपासना करने के लिए भेजा है ? बाहुबली गले में पहने हुए हार के कारण उन्नत ख्यातिवाले परिपूर्ण मेरु की भांति सुन्दर लग रहे थे। उनके यश और प्रताप से पराजित चन्द्रमा और सूर्य, कानों में पहने हुए कुँडल के मिष से उनका आश्रय ले रहे थे ।
वे ऐसे लग रहे थे मानो कि बाहु-युगल का शौर्य दृष्टिगोचर हो रहा हो, वीर रस मूर्तिमान् हो रहा हो तथा उन्नत अहंकार साक्षात् हो रहा हो ।
७८. स दर्शनात् क्षोणिपतेः प्रकंपितो, ज्वलत्कृशानोरिव तीव्रतेजसः । न लोचनाभ्यामपि यं विलोकितुं क्षमे मयेर्यः स किमित्यतर्कयत् ॥
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तीव्र तेजवाली जलती हुई अग्नि को देखकर जैसे कोई पुरुष प्रकंपित हो जाता है वैसे ही बाहुबली को देखकर दूत प्रकंपित हो गया । उसने सोचा - "जिनको मैं आंखों से भी देख नहीं सकता, उनके सामने मैं कैसे बोलूं ?”
७६.
भरत नृपतिचारः सोऽथ संयोज्य पाणी, क्षितिप्तिमवनम्यात्यन्तपुण्योदयाढ्यम् । विधिवदवनिनाथस्याग्रतः सन्निविष्टः, क्वचिदपि हि बिधिज्ञा नैव लुम्पन्ति मार्गम् ॥
महाराज भरत के दूत ने हाथ जोड़कर विपुल पुण्य के उदय से सम्पन्न महाराज बाहुबली को प्रणाम किया । वह उनके सम्मुख विधिवत् बैठ गया । क्योंकि विधि को जानने वाले कहीं भी मार्ग - परंपरा का लोप नहीं करते ।
- इति भरतदूतागमो नाम प्रथमः सर्गः -
१. ईर्य : - वाच्यः ।
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