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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. यद् वा भरतभूपालो, मामनिजित्य पूर्वतः।
षट्खण्डी जेतुमुद्यातः , क्लेशायाजनि तस्य तत् ॥
अथवा महाराज भरत मुझे पहले जीते बिना ही छह खंडों को जीतने के लिए चल पड़ा। यह उसका व्यर्थ का प्रायास हुआ।
१७. युसद्विद्याधराधिक्यात् , स कि भापयिता मम।
महाब्धिर्मीनबाहुल्यात् , किमगस्तेर्भयङ्करः ? ..
देवता और विद्याधरों की अधिकता से वह मुझे क्या भय दिखा रहा है ? क्या मछलियों की बहुलता वाला महासमुद्र अगस्त्य ऋषि के लिए कभी भयंकर हुआ है ?
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१८. रत्नानि निधयश्चास्य , रणायातस्य मेऽग्रतः।
अन्तरा कि भविष्यन्ति , द्रोः पत्राणीव हस्तिनः॥
जब भरत संग्राम के लिए मेरे सामने आएगा तब रत्न और निधियाँ क्या उसके प्राडे आयेंगी? जैसे जब हाथी वृक्ष को उखाड़ता है, तब पत्ते क्या उसके (वृक्ष के) आडे आते हैं ?
१६. जगत्त्रयजनं जेतुमलंभूष्णुर्भवान् भुज !। ____ कातरो भ्रातरं हन्तुं , तं त्वां वीरीकरोम्यहम् ॥
बाहुबली ने भुजाओं को संबोधित कर कहा–'हे भुजायो । तुम तीनों लोक की जनता को जीतने में समर्थ हो, किन्तु उस भाई भरत को मारने के लिए कायर हो। तुम को अब मैं वीर बना रहा हूं।'
२०. न कोपि समरे वीरः , प्रतिष्ठाता ममाग्रतः।
इत्यूहिनस्तवायातो , भुज ! सांग्रामिकोत्सवः ।।
हे भुजागो ! तुम यह सोच रही हो कि युद्ध में तुम्हारे समक्ष कोई भी वीर नहीं टिक पाएगा। तो लो, अब तुम्हारे लिए युद्ध का यह उत्सव आ गया है।
२१. रे स्नेह ! मन्मनोगेहनिवासिन्नथ मास्य भूः।
अन्तरायी रणे स्नेहो , न हि वैरिजयप्रदः ॥ ..
मेरे मन-मन्दिर में रहने वाले स्नेह ! तुम युद्ध में अन्तराय (बाधा) उपस्थित मत