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तृतीय : सर्ग:
करना । क्योंकि युद्ध में होने वाला स्नेह वैरियों को जीतनेवाला नहीं होता।
२२.
समन्मुष्टिप्रदीपान्तः, शलभीभविता स्वयम् । तमांसीवान्यभूपाला न स्थास्यन्ति रणान्तरे ॥
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रण में वह भरत मेरी मुष्टि रूपी दीपमाला में पड़कर शलभ की भाँति और दूसरे राजे अन्धकार की भाँति मेरे सामने नहीं टिक पाएंगे ।
२३. काश्यपी' करमारूढा, कामिनीव विरोधिभिः । कदर्थ्यते हि यत् स्वैरं त्वत्प्रभोस्तत् त्रपाकरम् ॥
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२४.
जिस प्रकार विरोधी के हाथ में आई हुई कामिनी की मनचाही कदर्थना होती है, उसी प्रकार विरोधी के हाथ में आई हुई भूमि की भी कदर्थना होती है । यह तुम्हारे स्वामी के लिए लज्जास्पद बात होगी ।
खण्डविजयात् तेन जिष्णुता यात्ववाप्यत ।
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अपूर्व जिष्णुतामाप्तुं मत्तस्तामयमीहते ॥
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२६.
छह खंडों को जीतकर भरत ने जो विजय प्राप्त की है, वह अब मुझसे 'अ' पूर्वक विजय ( + त्रिजयपराजय ) पाना चाहता है ।
२५. यथा ते भ्रातरस्तातं जग्मू राज्य कनिस्पृहाः ।
तथाहं तातमेष्यामि दर्शयित्वा निजं बलम् ॥
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जिस प्रकार राज्य के प्रति अनासक्त रहनेवाले निनानवें भाई पिता के पास चले गएमुनि बन गए, वैसे ही मैं भी चला जाऊँगा किन्तु उनकी भाँति सीधा नहीं, अपना पराक्रम दिखाने के बाद जाऊँगा ।
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परा' भूति' रनेनात्र चतुर्दिग्विजयेऽजिता । पराभूति 'भविश्यस्य मत्तोपि समराङ्गणे ॥
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१. काश्यपी - पृथ्वी ( काश्यपी पर्वताधारा - अभि० ४ | ३ )
२. परा - उत्कृष्टा ।
३. भूतिः - लक्ष्मीः ।
४. पराभूतिः - पराभवः ।