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________________ ५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भरत ने चतुर्दिक् विजय में परा-भूति (उत्कृष्ट संपदा) अजित की है। समरांगण में मुझसे भी उसे पराभूति (पराभव) ही प्राप्त होगी। २७. गजाश्वरथपत्तीनां , कोटीषु गणना न मे । कि स्खलेदर्कतूलेषु , पवनः पातितमः ? मेरे लिए हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों की कोई गणना नहीं है। जो पवन वृक्षों . को धराशायी कर देता है, क्या वह अर्क-तूल को उड़ाने में स्खलित हो सकता है ? २८. वाच्यो दूत ! ममाकूतो , भ्रातुरग्रे त्वया पुनः । त्रातारो नैव संग्रामे , गजाश्वरथपत्तयः॥ . दत ! भरत के समक्ष तुम मेरी सारी बातें कहना पौर यह भी बता देना कि संग्राम में हाथी, घोड़े, रथ और सैनिक त्राण नहीं दे सकते। २६. आडम्बरो हि बालानां , विस्मापयति मानसम् । मादृशां वीरधुर्याणां , भुजविस्फूर्तयः पुनः॥, आडंबर केवल बाल व्यक्तियों के मन को ही विस्मित कर सकता है। मेरे जैसे वीराग्रणियों के लिए तो भुजाओं के प्रकम्पन ही अपेक्षित हैं। ३०. मबाहुवायुसञ्चारे , धान्येनेव त्वयैव च।' स्थास्यते सङ्गरे नान्यैस्तुषैरिव खलक्षितौ ॥ जैसे हवा के चलने पर खलिहान की भूमि में केवल धान्य ही रह पाता है, तुष नहीं, वैसे ही रणभूमि में मेरी भुजाओं से उठे वायु के संचार से केवल भरत ही रह पाएगा, दूसरे नहीं। ३१. भ्रातुः संसप्पिदोर्दर्पज्वरिताङ्गस्य दोर्मम । मुष्टिभैषज्यदानेन , चिकित्सां च विधास्यति ॥ मेरे भाई का शरीर प्रसरणशील भुजाओं के दर्ष से ज्वरयुक्त हो गया है। मेरी भुजाएं अपनी मुष्टी रूपी भैषज्य से उसकी चिकित्सा करेंगी। ३२. संश्रितः सकलश्रीभिस्तटिनीभिरिवार्णवः। सस्मयोत्रेव मा भूयास्तद्दायादा हि भूरिशः॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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