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तृतीयः सर्गः मेरे साथ युद्ध किए बिना ही भरत छह खंडों का स्वामी बनकर दप्त हो रहा है। जैसे हाथी सिंह के संरंभ (आवेश, तीव्रता) को छोड़ कर केवल पेड़ को धराशायी कर दृप्त हो जाता है।
११. अद्यप्रभृति मे भ्राता , पूज्योऽयं तातपादवत् ।
अतः परं विरोधी मे , भ्राता नो तादृशः खलु ॥
आज तक मेरा भाई भरत पिता की भाँति पूज्य था किन्तु आज से वह मेरा विरोधी है। ऐसा व्यक्ति मेरा भाई नहीं हो सकता।
१२. सिंहिकासुत मेवैकं , स्तुमस्तं करवजितम् ।
प्रहाणामीश्वरं योत्र , सहस्रकरमत्ति हि ॥ .
हम उस एक राहु की स्तुति करते हैं जो कर (हाथ) से वजित होते हुए भी ग्रहों के स्वामी, सहस्रकर (हजार हाथों-किरणों) वाले सूर्य को भी खा जाता है, ग्रस लेता है।
१३. तुष्टः कनीयसां राज्य यमद्यापि भूविभुः ।
मत्तः सिंहादिव पलं , सेवांमर्थयते वृथा ॥
पृथ्वी का स्वामी भरत अपने छोटे भाइयों के राज्यों को हड़प कर भी आज तक संतुष्ट नहीं हुआ और व्यर्थ ही मेरे से सेवा की याचना कर रहा है, जैसे कोई पुरुष सिंह से मांस की याचना कर रहा हो ।
१४. अयं ह्य नशतभ्रातृराज्यादानैर्न तृप्तिभाक् ।
वडवाग्निरिवाम्भोभिर्वसन् रत्नाकरेपि हि ॥
यह भरत निनानवें भाइयों का राज्य लेकर भी तृप्त नहीं हुआ, जैसे समुद्र में रहता हुआ वाडवाग्नि पानी से तृप्त नहीं होता।
१५. कीनाश' इव दुष्टाशः , सर्वग्रासी नृपद्विपः ।
मद्दोर्दण्डाङ्कुशाघातं , विना मार्गे न गत्वरः ॥
भरत रूपी हाथी यमराज की भांति दुष्ट आशयवाला और सब कुछ ग्रसने वाला है। मेरे भुजा रूपी अंकुश के घात के बिना वह मार्ग पर नहीं आएगा, सीधा नहीं होगा।
१. सिंहिकासुतः-राहु (तमो राहु सैहिकेयो–अभि० २।३५) २. कीनाश:-यमराज (कीनाशमृत्यू समवतिकालौ-अभि० २०६८)