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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
... मौनमुद्रामथोन्मुच्य , हृद्घटाभारतीरसम् । व्यक्तीचकार भूजानिवृषभध्वजनन्दनः ॥
ऋषभ-नन्दन महाराज बाहुबली ने मौन भंगकर अपने हृदय रूपी घटा से वाणी रूपी रस बरसाया।
त्वया भरतभूभर्तभरती वाग्मिनां वर !। भाष्यलीलारसं नीता , सच्छिष्येण गुरोस्वि ॥
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हे वाचाल प्रवर दूत ! तुमने महाराज भरत की वाणी का सुन्दर-सरस भाष्य किया है, जैसे कि शिष्य गुरु की वाणी का भाष्य करता है। . .
दूत ! त्वत्स्वामिनो धाटयं , वाचालत्वं तवोद्धतम् ।। एतद्वयं ममात्यन्तं , हास्यमास्ये तनोति हि ॥
हे दूत। तुम्हारे स्वामी की धृष्टता और तुम्हारी. उद्धत वाचालता-ये दोनों मेरे मुंह पर अत्यधिक हास्य बिखेर रहे हैं।
ऋषभध्वजवंशोयं , बुभूषेऽनेन पूर्वतः । पूर्वकायमेवातः , पश्चात्कर्तास्म्यहं ततः ॥
यह ऋषभ का वंश भरत से सर्वप्रथम शोभित हुआ है इसलिए यह इस वंश का पूर्वकर्ता है और उसके बाद का कर्ता तो मैं हूं।
भूभृदाक्रमणे चित्रं , कि युगादेस्तनूरुहाम् । किं पादा अपि नोष्णांशोभूभृदाक्रमणोल्वणाः ?
ऋषभ के पुत्रों के लिए भूभद्-राजाओं पर आक्रमण करना कोन सी आश्चर्य की बात है ? क्या सूर्य की किरणों का भूभृद्-पर्वतों पर आक्रमण करना स्पष्ट नहीं है ?
१०. षट्खण्डाखण्डलत्वाच्च , दृप्तो मद्विग्रहादृते ।
मुक्त्वकं सिंहसंरम्भं , वन्तीव द्रुमभङ्गतः ॥ १. भूजानिः-भूः–पृथ्वी, जाया–पत्नी अस्ति यस्य सः भूजानिः-राजा। २. भूभृत्-राजा। ३. भूभृत्-पर्वत । ४. संरम्भ:-भावेश, तीव्रता (आवेशाटोपौ संरम्भे-अभि० ६।१३५)