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तृतीयः सर्गः
दीप्रदन्तद्यतिज्योत्स्नादीप्तोष्ठाधरपल्लवम् । दधानः स्मितमुद्योतमिव पीयूषदीधितिः ॥
दूत की बातें सुनकर ऋषभ-नन्दन बाहुबली विकसित दंतपंक्ति की किरणों के प्रकाश से दीप्त अघरपल्लवों से मुस्कराने लगे, मानो कि चन्द्रमा प्रकाश को धारण कर रहा
क्षिपन गुजारुणे नेत्रे , विद्रुमे इव वारिधिः । कोपवीचिचयोंद्रेकात् , स्वदोर्दण्डतटोपरि ॥
बाहुबली ने गुंजा की भाँति लाल आंखों को क्रोध रूपी तरंगमाला के उद्रेक से अपने भूजा-तट पर फेंका , मानो कि समुद्र ने तरंगमाला के वेग से आने तट पर दो विद्रुम
फेंके हों। ।
३.
अमिमान्तमिवान्तस्तु , बहिर्यातुमिवोद्यतम् । धरन् शौर्यककुद्मन्तं , त्रुट्यदङ्गद बन्धनः ॥
बाहुबली शौर्य रूपी वृषभ को धारण कर रहे थे। वह अन्दर न समाता हुअा बाहिर पाने के लिए 'उद्यत हो रहा था। प्रबल शौर्य के कारण भुजाओं पर बंधे हुए बाजूबंध टूट-टूट कर गिर रहे थे।
वहन बालातपारक्तसानुस्वर्णाद्रिविभ्रमम् । वपुषा कोपताम्रण , सततौन्नत्यशालिना ॥
बाहुबली का शरीर सतत उन्नत और कोप से रक्त था। उस समय वह बाल-सूर्य की भांति रक्त शिखर वाले मेरु की शोभा को पा रहा था।
१. पीयूषदीधितिः--चन्द्रमा। २. अंगदं - बाजूबन्ध (केयूरमंगदं बाहुभूषा... अभि० ३।३२६) ।