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द्वादशः सर्गः ....
२३७ 'राजन् ! ये हजारों राजे और ये करोड़ों सुभट आपके साथ हैं। वे अपनी भुजाओं रूपी नौकाओं से इस दुस्तर रण-समुद्र को तैरना चाहते हैं।'
४७. अवन्तिनाथोयमुदग्रतेजा , भवन्निदेशापितचित्तवत्तिः।।
यस्य प्रतापज्वलनप्रतप्ता , धारागृहेष्वप्यरयस्तपन्ति ॥
'यह प्रचण्ड तेजस्वी राजा अवन्ति देश का है। इसने आपकी आज्ञा में ही अपनी मनोवृत्तियों को समर्पित कर रखा है। इसकी प्रताप रूपी अग्नि से संतप्त शत्रु जलगहों में भी ताप का अनुभव करते हैं।'
४८. स्वप्नान्तरेपि द्विषतां ददाति , दृष्टोयमातङ्कमशङ्कचेताः ।
निःश्वासधूमैश्च पराङ्गनाभिः , सितापि' सौधालिरकारि नीला॥
'जब शत्रु इस निर्भय राजा को 'स्वप्न में भी देख लेते हैं तो वे भयभीत हो जाते हैं। शत्रुओं की स्त्रियां इसको देखकर निःश्वास छोड़ने लग जाती हैं और तब निःश्वास के धुंएं से श्वेत प्रासाद की श्रेणी भी काली हो जाती है।'
४६. अयं पुनर्मागधभूमिपालो , विपक्षकालोऽग्रत एव तेऽस्ति ।
यस्योग्रसैन्यानि हयक्षुरामोद्धतै रजोभिः पिदधुदिनेन्द्रम् ॥
'मगध देश का यह भूपाल आपके समक्ष ही खड़ा है । यह शत्रुओं के लिए मौत के समान है। इसकी उम्र सेनाओं ने अपने घोड़ों के खुरागों से उठे हुए रजःकणों से सूर्य को भी ढक दिया था।'
५०. स सिन्धुनाथः पुरतः स्थितस्ते , यन्नामसंसाध्वसपन्नगेन ।
___ मूर्च्छन्ति दष्टाः किल भूमिपाला , न जाङ्गुलीकै रपि चेतनीयाः॥
'आपके समक्ष सिन्धु देश का स्वामी स्थित है। इसके नाम रूपी भयानक सर्प द्वारा डसे.हुए राजे मूच्छित हो जाते हैं और वे विष-चिकित्सकों से भी सचेतन नहीं हो पाते।'
१. धारागृहं--जलगृह । २. सितः-सफेद (श्वेतः श्येतः सितः शुक्ल:-अभि० ६।२८) ३. नीलः-काला (कालो नीलोऽसितः शितिः-अभि० ६।३३) ४. जाङ गुलिकः-विष-चिकित्सक (जाङ गुलिको विषभिषक्-अभि० ३।१३८)
(जाङ गुलीकः इत्यपि).