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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
४२. दिगन्तगन्ता जगति त्वमेव , विभाव्यते नान्यतरश्च कश्चित् । - तेजस्विनां धूर्यतया प्रतीतो , होकः सहस्रद्युतिरेव देव ! ॥
"इस संसार में आप ही दिगन्तों का पार पाने वाले हैं। कोई दूसरा वैसा नहीं कर सकता । देव ! तेजस्वियों में प्रधानरूप से केवल एक सूर्य ही प्रतीत है, दूसरा कोई नहीं।'
४३. आयोधने द्वित्रिभटव्ययेऽपि , भङ्गोस्य सामन्तनृपस्य भावी ।
देदीप्यमाने किल दीपधाम्नि', स्वयं पतङ्गो विजुहोति देहम् ॥ ...
'इस युद्ध में अपने दो-तीन सुभटों के बलिदान से ही इस सामन्त-नृप बाहुबली का विनाश हो जाएगा। दीपक की देदीप्यमान लो में पतङ्गा स्वयं झंझापात कर अपमे शरीर की आहुति दे देता है।'
४४. कीर्तेरकीर्तेश्च महाभुजानां , रणक्षणे सङ्गतिमेति राजा।
कलिन्दकन्या' ह्यपि जन्हु कन्या', व्यक्तिहि नीरेण भवेत्प्रयागे ॥
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"युद्ध-क्षण में ही राजा महापराक्रमी योद्धाओं की कीत्ति या अकीत्ति की संगति को जान पाता है। क्योंकि प्रयाग में गंगा और यमुना की अभिव्यक्ति जल से ही होती है।' (गंगा का पानी श्वेत और यमुना का पानी नीला होता है।)
४५. अयं रणो वीरमनोरथश्च , समागतो मूर्त इव प्रमोवः ।
अत्रापि दैन्यं वितनोति कोपि , कामीव कान्ताधरबिम्बपाने ।
'यह युद्ध वीरों के लिए मनोरथ है । यह मूर्त प्रमोद की तरह प्राप्त हुआ है। ऐसी स्थिति में भी यदि कोई दीनता दिखाता है तो वह वैसे ही निर्वीर्य है जैसे कोई कामुक व्यक्ति स्त्री के अधर बिम्ब का पान करने के लिए दीनता दिखाता है।'
४६. सहस्रशो भूमिभुजोप्यमी ते , भटास्त्वदीया नप ! कोटिशोऽमी।
रणार्णवं दुस्तरमुत्तरीतुमिच्छन्ति दोर्दण्डतरण्ड काण्डः ॥ .
१. दीपधामिन-दीपक में । २. कलिन्दकन्या-यमुना (अभि० ४।१४६) ३. जन्हुकन्या-गंगा (अभि० ४।१४७) २४. तरण्ड:-नौका (कोलो भेलस्तरण्डश्च–अभि० ३१५४३)
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