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द्वादश: सर्ग:
'राजन् ! आपने निःशंक होकर मगध आदि तीर्थों को साधा है । अब आपके महाराज बाहुबली का अस्तित्व ही क्या है ? शेषनाग के समक्ष पृथ्वी के भार को वहन करने वाला दूसरा कौन हो सकता ?'
३८.
'महेन्द्र ! नमि आदि के क्या पर्वतों की पांखों को कुंठित होती है ?"
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न नाम नम्यादिरणे महेन्द्र ! चित्तोन्नति स्ते सुरशैलतुङ्गन । कुण्ठोभवेत् कि हरि हस्तमुक्तदम्भोलि धारा गिरिपक्षहृत्यै ?
३६. श्रितस्त्वमेवाभ्यधिकोदयत्वाद्, गीर्वाणवृन्देरभिवन्द्यसत्त्वः । विश्राणनैरिभ्य इवाsतदीयैः, संपादितात्युन्नतिसन्निधानैः ॥
४०.
साथ युद्ध करने में आपका अहं मेरु की भांति ऊँचा रहा । काटने के लिए इन्द्र के हाथ से मुक्त वज्र की धारा कहीं
'अधिक भाग्यशाली होने के कारण अभिवन्दनीय पराक्रम वाले आप देवताओं द्वारा वैसे ही आश्रित हैं जैसे दान के द्वारा इभ्य । वे देवता आत्मीय न होते हुए भी उन्नति का सम्पादन करने में आपके निकटवर्ती रहते हैं ।'
४१.
त्वमेव चक्री विजयी दिगन्तजेता सुरैः सेवित एव च त्वम् । तहि सामन्तजयाय तर्कः, करी प्रभुः किं व्रततीहृते न ?
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'राजन् ! आप ही चक्रवर्ती हैं, विजेता हैं, दिगन्तों को जीतने वाले हैं और आप देवताओं द्वारा उपास्य हैं । ऐसी स्थिति में सामन्त को जीतने की बात ही क्या है ? क्या हाथी लता को उखाड़ने में समर्थ नहीं होता ?"
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त्वामात्मतुल्यं गणयत्यजत्र, शक्रोऽपि भूशऋशिरोवतंस ! 1
चिन्तामणि कोपि जहाति हस्तात् कः पौरुषाद् रोषयते कृतान्तम् ?
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'हे राजाओं के मुकुट भरत ! इन्द्र भी आपको सदा अपने समान मानता है । क्या कोई चिन्तामणि रत्न को हाथ से गंवाता है ? क्या कोई अपने पौरुष से यमराज को पत करता है ?"
१. चित्तोन्नतिः -- अहंकार ( मानश्चित्तोन्नतिः स्मयः - अभि० २।२३१ ) २. हरि:: - इन्द्र ( इन्द्रो हरिदु श्च्यवनोच्युताग्रजो - प्रभि० २२८३ ) ३. दम्भोलिः–— वज्र (दम्भोलिभिदुरं भिदुः – प्रभि० २।१४ )