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: ५१. अयं कुरूणामधिपः पुरस्ते, रणे रिपूणां हि ददर्श पृष्ठम् । मुखं न यः पुष्करपुष्पवल्लीवदुन्नतोऽहीनभुजद्वयश्च ॥
" आपके सामने यह कुरु प्रदेशों का अधिपति स्थित है। यह पुष्कर की पुष्पवल्ली की भाँति उन्नत और उन्नत भुज-युगल वाला है । इसने रण क्षेत्र में शत्रुओं का मुख कभी - नहीं देखा, केवल उनकी पीठ ही देखी है ।'
५२. उदग्रबाहुद्विषदिन्दुराहुः स्थितः पुरस्तेऽधिपतिरूणाम् । स्वप्नेपि संग्रामरसातिरेकाद्, धनुर्धनुर्व्याहरतीति यश्च ॥
भरत बाहुबलि महाकाव्यम्
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" आपके समक्ष यह मरुदेशों का स्वामी स्थित है। इसकी भुजाएं प्रचण्ड हैं और यह शत्रु रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान है । युद्ध करने की अत्यन्त उत्कंठा के कारण यह स्वप्न में भी 'धनुष्य - धनुष्य' - यों बड़बड़ाता रहता है ।'
५३. सौराष्ट्रराष्ट्रस्य पतिः पुरोऽयं सेवाकरो यस्य करोवमेने ।
भूपालपंक्त्या न हृदीश्वरस्य वध्वेव रागातिशयं वहन्त्या ॥
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५४.
" आपके सामने यह सौराष्ट्र देश का राजा खड़ा है । दूसरे राजाओं ने इसके सेवा - परायण हाथों की कभी अवमानना नहीं की । जैसे अत्यन्त अनुरक्त स्त्री अपने पति के हाथ की अवमानना नहीं करती ।'
५५.
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कोटि : सपादा तव नन्दनानां पुरः स्थितेयं भरताधिराज !। बुभुक्षिते वा हितभोजनाय प्रधावति स्वैरमतो रणाग्रम् ।।
'हे भरत भूपाल ! आपके समक्ष आपके सवा कोटि पुत्र स्थित हैं । जैसे भूखा व्यक्ति [ हितकारी भोजन के लिए दौड़ता है वैसे ही ये पुत्र स्वेच्छापूर्वक युद्ध के लिए दौड़ते हैं ।'
अयं पुरः सूर्ययशाः सुतस्ते, गौरिप्रियस्येव गुहो बलाढ्यः । यदीयतापात् किल तारकाद्या, नेशुः प्रवृद्धात् समरोदयाद्रेः ॥
'राजन् ! यह रहा आपका पुत्र सूर्ययशा । यह महादेव के पुत्र कार्तिकेय की भांति शक्ति- संपन्न है । इसके बढ़े हुए ताप से तारक आदि शत्रु समर रूपी उदयाचल से भाग - गए।'