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दशमः सर्गः
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५८. मयापि तन्मार्ग उरीकृतोऽयं , चन्द्रातपेनेव तुषारभानुः ।
स्वनन्दनेषु प्रतिरोप्य राज्यं , वयं विरक्ता अभवाम राजन् ! ॥
'राजन् ! अपने-अपने पुत्रों को राज्य-भार सौंपकर हम (मैं, नमि और विनमि) सब विरक्त हो गए। जैसे चाँदनी चन्द्रमा के मार्ग का अनुसरण करती है, वैसे ही मैंने भी उनके इस मार्ग का अनुसरण किया है।'
५६. त्रयोपि हंसा इव राज्यभारसरोवरं तं परिहाय लीनाः ।
युगादिदेवं चरणकलीलां , विधातुमाकाशपथेन सद्यः ॥
'राजन् ! इस राज्य भार रूपी सरोवर को छोड़कर हम तीनों मैं, नमि और विनमि)' ऋषभ के चरणों में लीन हो गए हैं। जैसे हंस सरोवर को छोड़कर आकाशमार्ग में क्रीड़ा करने के इच्छुक होते हैं वैसे ही हम संयम में क्रीड़ा करने के इच्छुक हो । गए हैं।'
६०.
युगादिदेवं द्रुतमेत्य बुद्धा , एवं त्रयोऽपि व्रतमाचराम । संसारतापातुरमानवानां , जिनेन्द्रपादा अमृतावहा हि ॥
'राजन् ! इस प्रकार हम ऋषभ क़ पास पहुंचे और शीघ्र ही संबुद्ध हो गए। उनसे हमने दीक्षा स्वीकार करली। क्योंकि संसार के ताप से व्याकुल मनुष्यों के लिए जिनेन्द्र देव के चरण मोक्ष-प्रदाता होते हैं।'
६१. युगादिनेतुश्चरणारविन्दे , वयं त्रयोऽपि भ्रमरायमाणाः ।
____ अंमन्दमामोदमदध्म कामं , नित्यं त्वतिष्ठाम सुनिश्चलाशाः ॥
'हम तीनों ऋषभदेव के चरण-कमल में भ्रमर की भाँति लुब्ध हैं। हम वहां सदा प्रचुर आनन्द का अनुभव करते हैं और हमारे भाव सुनिश्चल हैं।'
६२. अधीत्य पूर्वाणि चतुर्दशापि , निःशेषसिद्धान्तरसं निपीय ।
वयं विनीता व्यहराम भूमीपीठे समं श्रीजगदीश्वरेण ॥
'हमने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर सम्पूर्ण सिद्धान्त के रस का पान किया है। अब हम विनीत भाव से जगदीश्वर के साथ-साथ पृथ्वी तल पर विहार करने लगे हैं।'
१. पाठान्तरं-स्वनन्दनेभ्यः ।