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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६३. सर्वत्र योगे सुयता महीश ! , प्रणीतमार्ग त्वचराम शीलः । - तपो द्विधा दुस्तपमाधराम , क्रियासु नालस्यमुपाचराम ॥
'हे राजन् ! हम सर्वत्र मन, वचन और काया की प्रवृत्ति में संयत हैं । हम तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग का साधुवृत्ति से आचरण करने लगे। हमने दोनों प्रकार को (बाह्य और आभ्यन्तर) तपस्याओं में कठोर तप तपा है। हम आवश्यक क्रियाओं में कभी प्रमाद नहीं करते।'
६४. चामीकराम्भोजनिवेशितांहिपनः सपनः सदनं गुणानाम् ।
वारामिवाब्धिर्गणनातिगानां , प्रणामयन् वैरिचयानिव द्रून् ॥ ६५. त्रिछत्रराजी पुरुहूतहस्तविधूतबालव्यजनः समन्तात् ।।
भामण्डलं भानुविडम्बि बिभ्रत् , सधर्मचक्र निहताघचक्रम् ॥ अथान्यदा सर्वसुरासुरेन्द्रः, संसेव्यमानांहिरलंचकार । . . लक्ष्मीप्रभोद्यानमनूनलक्ष्मि , देवो नभोमध्यमिवांशुमाली ॥
__-त्रिभिविशेषकम् ।
६६.
'स्वर्ण-कमल पर पैर रखकर चलने वाले, श्री-सम्पन्न, जल के लिए समुद्र की भाँति असंख्य गुणों के आश्रय, शत्रु-समूह की भाँति वृक्षों को प्रणत करते हुए, तीन छत्रों से शोभित, चारों ओर इन्द्र के हाथों द्वारा चामर से वीजित, सूर्य को विडंबित करने वाले प्रभामंडल और पाप-चक्र को प्रहत करने वाले धर्म-चक्र को धारण करने वाले, सब सुर और असुर इन्द्रों द्वारा सेवित भगवान् ऋषभ ने किसी समय परिपूर्ण शोभावाले . इस 'लक्ष्मीप्रभ' उद्यान को अलंकृत किया था, जैसे आकाशमध्य को अंशुमाली अलंकृत करता है।'
६७. प्रावोचमन्येद्युरिति प्रणम्य , नाभेयदेवं नतविश्वदेवम् ।
भवन्निदेशाद् भगवन् ! मदीयस्तीर्थेषु कामोस्ति गुणेष्विवार्थः ॥
एक बार समस्त देवों द्वारा वन्दनीय ऋषभदेव को वन्दना कर मैंने कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं तीर्थों में जाना चाहता हूँ, जैसे गुणों में सम्पदायें जाती हैं।'
६८. इतीरितं मे विनिशम्य लाभालाभादिविज्ञानविशेषदक्षः।
युगादिदेवः किल मां जगाद , यदृच्छया वत्स ! चरेति तीर्थे । १. पाठान्तरम्-सर्वत्र योगेष्वयातमहीशप्रणीतमार्गः-सर्वत्र योगेषु-मनोवाक्कायनिरोधाख्येषु, ___ अयतामहि-प्रयत्नं कृतवन्तः.....ईशप्रणीतमार्ग-- प्रभुकथिताध्वानम्--पंजिका पन ४०। .. २. सर्वसुराऽसुरेन्द्रः-सकलवैमानिकभुवनपतिनाथः । ३. गुणेष्विवार्थः-गुणेषु-शौर्यादिषु अर्थ इव, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः इति वचनात् ।