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दशमः सर्गः
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लाभ और अलाभ को जानने में विशेष दक्ष भगवान् ऋषभ ने मेरी बात सुनकर कहा - 'वत्स ! तू अपनी इच्छा के अनुसार तीर्थों का पर्यटन कर ।'
६६.
'राजन् ! उनकी आज्ञा पाकर मैं यहाँ जिनेश्वर देव को वंदन करने आया हूँ। मुनियों की तीर्थ यात्रा का परिणाम मनोज्ञ होता है । उनके लिए इससे बढ़कर और मनोज्ञ है ही क्या ?'
७०.
७१.
आज्ञां तदीयामधिगम्य राजन्निहागतोहं जिन वन्दनाय । वाचंयमानां खलु तीर्थयात्रा, फलं मनोज्ञं किमिहान्यदेव ||
'चन्द्र की भाँति उज्ज्वल इस नए तीर्थ का निर्माण बाहुबली के पराक्रमी पुत्र चन्द्रयशा करवाया है । मैं उसकी यात्रा करने के लिए यहाँ आया हूँ ।'
७२.
इदं नवं तीर्थमकारि बाहुबलेस्तनूजेन महाबलेन ।
चन्द्रामलं चन्द्रयशोभिघेन तदीययात्राकृतयेऽहमागाम् ॥
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७३.
'नरेन्द्र ! वहाँ से मैं पुनः वहीं ( लक्ष्मीप्रभ उद्यान में ) ऋषभ के चरण-कमल की सेवा करने के लिए चला जाऊँगा, क्योंकि चकोर का शिशु चन्द्रमा के बिना कहीं भी घृति (तुष्टि) को प्राप्त नहीं करता ।'
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युगादिदेवहिनिषेवणाय तत्रैव गन्तास्मि पुनर्नरेन्द्र ! ! विना शशाङ्कः धृतिमुद्वहेत, नान्यत्र कुत्रापि चकोरशावः ॥
इतीरयित्वा विरतं मुनीन्द्र पुनर्ववन्दे भरताधिराजः । श्रीतातपादस्य नतिर्मदीया, वाच्या विशेषादिति भाषमाणः ॥
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यह कहकर मुनि मौन हो गए। महाराज भरत ने उन्हें पुनः वन्दना करते हुए कहा'मुने ! ऋषभदेव के चरणों में मेरा विशेष वंदन निवेदित करें ।'
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अभ्यर्च्य देवं प्रणिपत्य साधुं ततः स्वमावासमियाय भूभृत् । सर्वेऽपि भूपास्तदनु' स्वकेषु, गेहेष्वऽवात्सुर्नृपतेनिदेशात् ॥
ऋषभदेव की पूजा कर और मुनि को वंदन कर महाराज भरत अपने निवास स्थान पर आ गए । तत्पश्चात् उनकी आज्ञा से सभी राजे अपने-अपने निवास स्थान पर चले गए ।
१. तदनु— तदनन्तरम् ।