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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'हे लोभमुक्त मुने ! आपने क्रोध रूपी अग्नि को क्षमा के जल से सर्वथा उपशान्त कर दिया है। आपने मान रूपी हाथी को मार्दव के सिंहनाद से परास्त कर दिया है और आपने माया रूपी वृक्ष का ऋजुता के परशु से उच्छेद कर दिया है।'
५३. अस्मादृशाः संप्रति राज्यलीलाकूलङ्कषाकूलमहीरुहन्ति ।
चेद् भद्रभाजः खलु तत्र तर्हि , तातप्रसादाच्छिवगा भवद्वत् ॥
'मुने ! हमारे जैसे व्यक्ति तो आज राज्यलीला रूपी नदी के तट पर वृक्ष की भाँति हैं। यदि वहाँ भी हम कल्याण के इच्छुक हों तो पूज्य पिताश्री की कृपा से आपकी भाँति मोक्षपक्ष के अनुगामी हो सकेंगे।'
५४. त्वया तपस्या जगृहे मुनीश ! , कस्यान्तिके कस्तवशान्तहेतुः?
अत्र प्रदेशे कथमागमस्ते , तत् सर्वमाशंस ममाग्रतस्त्वम् ॥
'मुनीश ! आपने किसके पास तपस्या (दीक्षा) स्वीकार की ? आपके शान्तरस का हेतु कौन है ? आप इस प्रदेश में क्यों आए हैं ? आप यह सब मुझे बतायें ।'
५५. एतावदुक्त्वा विरते क्षितीशे , मुनिर्मुखं सूत्रयतिस्म वाचा।
निजप्रवृत्तिप्रथिमानमुच्चरित्युद्वहन्त्या खमिव त्विषेन्दुः॥
इस प्रकार कहकर महाराज भरत विरत हुए । मुनि ने अपना मुंह खोला । जैसे चन्द्रमा अपनी किरणों से आकाश को प्रकाशित करता है वैसे ही मुनि की वाणी उनके चरित्र की गरिमा का प्रचुर उद्वहन कर रही थी, प्रकाशित कर रही थी।
५६. पृच्छापरश्चेद् भरताधिराज ! , त्वं हि सर्वां शृणु मत्प्रवृत्तिम् ।
पृच्छापराणां पुरतो हि वाक्यं , प्रणीयमानं सुभगत्वमेति ॥
'हे भरत क्षेत्र के अधिपति भरत ! यदि तुम पूछना ही चाहते हो तो मेरे समूचे वृत्तान्त को सुनो। क्योंकि प्रश्न करने वालों के समक्ष ही कहा जाने वाला वाक्य सौभाग्यशाली होता है।'
५७. भूभृत्सुनासीर ! रणं विधाय , समं त्वया शरिमवारिराशिः।
नमिः सबन्धुर्बुबुधे तदानीमेकान्तराज्यं नरकान्तमेव ॥
'हे राजाओं के इन्द्र भरत ! तुम्हारे साथ युद्ध करने के बाद, पराक्रम के समुद्र नमि और विनमि ने राज्य को एकान्ततः नरक ही माना।'