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सप्तमः सर्गः
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६०. इत्यु दीरितवतीमुवाच तां, दूतिरस्खलितवाक्परम्पराम् ।
जीवितेन सह विग्रहस्त्वयारभ्यते यदवगण्यते प्रियः ॥
नायिका ने अस्खलित वाणी में सारी बातें कही। तब दूती ने कहा- 'तुमने अपने पति की अवगणना कर अपने जीवन के साथ विग्रह प्रारम्भ कर दिया है।'
६१. किं न वेत्सि विधुरभ्युदेष्यति , प्रीतिवल्लिपरिवद्धिमण्डपः ।
मानिनीहृदयमानसंग्रहग्रन्थिमोक्षणपरिस्फुरत्करः॥
'क्या तुम नहीं जानती कि प्रेम रूपी वल्लरी की परिवृद्धि के लिए मंडप के समान और मानिनी स्त्रियों के मन में रहने वाले मानसंग्रह रूपी ग्रन्थियों को तोड़ने में समर्थ, अभिव्यक्त किरणों वाला चन्द्रमा उदित होगा ?'
६२. प्रेतभूः प्रमदकाननं शराः, कौसुमा रतिपतेरयोमयाः ।
चन्द्रमास्तरणिरित्यवेहि ते , वैपरीत्यमवशे हृदीश्वरे ॥
'तुम्हारे पति के तुम्हारे अधीन न होने पर यह प्रमद कानन श्मशान हो जाएगा। कामदेव के कुसुममय बाण लोहमय हो जायेंगे और यह चन्द्रमा सूर्य जैसा तपने लगेगा। तुम समझो, सब कुछ विपरीत हो जाएगा।'
६३. मौनमेवमनयाप्युदीरिता , यावदाश्रितवती त्वधोमुखी।
तावदेत्य. सहसा. लतान्तराश्छिच्लिषे प्रणयिनाऽथ मानिनी ॥
द्रती के कहने पर भी नायिका मौन हो नीचे मुंह किए खड़ी रही। इतने में ही उसका पति लताओं के बीच से अकस्मात् आया और उस कामिनी को अपनी बाहों में भर
लिया ।
६४. सर्वदेव चतुरासि भामिनि ! , प्रीणने वनविहार ईदृशः।
. सद्रवो'लय' इवातिदुर्लभः , कोपमानसमयं न वेत्सि किम् ? ६५. आददे हृदयमेव मे त्वया , नेतरा वसितु मत्र तत्क्षमा । अंह अंह इति वादिनी वधूश्चुम्बिता सरभसं विलासिना ॥
-युग्मम् । १. सद्रवः-रवेण–परिहासेन सह वर्तमान इति सद्रव: वनविहारः । २. लयः-गीतनृत्यवाद्यत्रयी। ३. वसिक् आच्छादने धातुः न तु 'वसन्निवासे । ४. अंह-मंह-सम्बोधने अव्ययः ।