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मरतबाहुबलि महाकाव्यम्
'हे सखि ! पति ने मेरा हृदय पहले ही छीन लिया है अतः अब मैं क्या करूं ? मैंने उसका हृदय नहीं लिया । वही विज्ञ है । मैं वैसी नहीं हूँ ।'
५५.
'जो नायक प्रमपूर्ण हृदयवाला होता है, वह स्त्रियों के मन से नीचे नहीं उतरता । जैसे शुद्ध पक्ष-युगल का प्रत्यय देने वाला राजहंस पद्मिनी के वन से नीचे नहीं उतरता । '
५६.
५७.
योषितामवतरेन्न मानसात् प्रीतिपूर्णहृदयो हि नायकः । राजहंस इव पद्मिनीनाच्छुद्धपक्षयुगल प्रतीतिभाक् ॥
'धन-धान्य, रत्न, वस्त्र आदि पदार्थ जीर्ण हो जाते है किन्तु दो युवा हृदयों के बीच होने वाला अद्वितीय सघन प्रेम कभी कहीं पुराना नहीं होता, जीर्ण नहीं होता ।'
५८.
1
सस्यरत्नवसनादयस्त्वमी, संश्रयन्ति विषयाः पुराणताम् । एक एव' frfast युवद्वयी प्रीतिरीतिनिचयो' न कुत्रचित् ॥
५६.
विस्मरन्ति दयिता न वल्लभं तद्वियोगविधुरा मृगीदृशो
,
'स्त्रियाँ अपने पति को कभी नहीं भूलतीं । वे पति को अपने जीवन से भी अधिक मानती हैं। पति के वियोग से विधुर हुई स्त्रियाँ अपने जीवन को तृणवत् तुच्छ समझती हैं ।'
जीवितादधिक एव यत् प्रियः ।
मन्वते तृणवदत्र जीवितम् ॥
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प्राणनाथविरहासहाः स्त्रियो, जातवेदसमुपासतेतराम् । ताभिरप्यनुनयो विधीयते, साहसस्य भविता हि का गतिः ॥
'स्त्रियाँ अपने प्राणनाथ का विरह सहन नहीं कर सकतीं । विरह प्राप्त कर वे अग्नि में प्रवेश कर जाती हैं । फिर भी उन्हें ही अपने पति का अनुनय करना पड़ता है, क्योंकि उनके साहस की क्या गति होगी, कौन जाने ?'
१. एक एव - अद्वितीय । २. युवद्वयीप्रीति"
पादयोनिपतितास एवं मे, नाहमप्यनुनयं समाश्रये । एत्वधिज्यधनुरप्यनन्यजो, धीरता सहचरी हि योषिताम् ॥
'वही मेरे पैरों में आकर गिरेगा। भले ही कामदेव धनुष्य में प्रत्यंचा ताने हुए आए फिर भी मैं अनुनय नहीं करूंगी, क्योंकि धीरता ही स्त्रियों की सहचरी है ।'
- युवयुवतियुगल प्रणयस्वभावसमुदयः ।