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________________ सप्तमः सग: १५६ भूमि में प्रवेश पनि की इच्छुक की भांति नीचा मुंह किए वह कहीं लतागृह में चली गई। ४९. वच्मि देवि ! भवती चकार किं , रागिणि प्रियतमे हि कि क्रुधा । श्रीरिव त्वमसि तस्य चेतसो , देवता जलरुहः किमन्यया ? ५०. त्वद्वियोगविधुरः स जीविते , संशयं परिजनस्य कल्पते । रङ्गभङ्ग उचितत्वमञ्चति , प्रस्तुते महविधौ न तत्तव ॥ ५१. तन्नियोगवशतस्त्वदन्तिकं , सङ्गतास्मि मम देहि तद् गिरम् । साथ दूतिमितिवादिनी जगौ, कोपभङ्गिपरिनतितेक्षणा ॥ -त्रिभिः कुलकम् । उसके पास एक दूती आकर बोली-'अरी देवी ! तुमने यह क्या किया ? अनुरक्त पति के प्रति क्रोध करने का क्या अर्थ ? कमल के लक्ष्मी की भांति तुम उसके चित्त की देवता हो । उसे दूसरे से क्या प्रयोजन ?' । 'देवी ! तुम्हारे वियोग से विधुर होकर वह अपने परिजन के जीवन में संदेह कर रहा है। उत्सव का प्रसंग प्रस्तुत होने पर उसके रंग में भंग करना तुम्हारे लिए उचित नहीं हैं।' 'तुम्हारे पति की आज्ञा से मैं तुम्हारे पास आई हूँ। तुम मुझे वहां चलने का वचन हो।' दूती के इस प्रकार कहने पर उस नायिका ने कोप-भंगिमा से आंखों को नचाते हुए कहा ५२. • ति ! सत्यमुदितं त्वया वचो , न प्रवेष्टुमहमस्य हृद् विभुः । .. वणिनीशतसमाकुलं यतः , प्रीतिरस्य शतधा विभज्यते ॥ 'दति ! तू ने सत्य बात कही है कि मैं उसके हृदय में प्रविष्ट होने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि उसका हृदय सैकड़ों सुन्दरियों से समाकुल है और उसका प्रेम भी उन सैकड़ो में विभाजित हो गया है।' ५३. का सुधा मृगदृशां हि वल्लभः , प्रीतितत्परमना भवेद् यदि । . प्राणनाथ करगामि जीवितं , योषितामिति वदन्ति सूरयः । यदि पति प्रीतिपरायण हो तो स्त्रियों के लिए अमृत भी क्या है ? कुछ नहीं। विद्वान ठीक ही कहते हैं कि स्त्रियों का जीवितव्य उनके पति के हाथ में होता है। . ५४. पूर्वमेव हृदयं विलासिना , मे गृहीतमथ किं करोम्यहम् । तन्मनश्च न मया ववे तदा , विज्ञ एव स न चाहमीदृशी ॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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