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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
भरत ने कहा - 'हे भामिनी ! तुम संतुष्ट करने में सदा ही चतुर रही हो । यह परिहास युक्त वन-विहार लय (गीत, नृत्य, और वाद्य से युक्त विलास ) की भांति अत्यन्त दुर्लभ है । प्रिये ! क्या तू कोप और मान के अवसर को नहीं जानती ?"
'तुमने मेरा हृदय ही चुरा लिया है। उस हृदय को दूसरी कोई भी स्त्री आच्छादित करने में समर्थ नहीं है ।' तब वह नायिका 'नहीं, नही' कहती रही और भरत ने उसका हठात् चुंबन ले लिया ।
६६.
राजा भरत चंद्रमा की भांति शोभित हो रहे थे । जिस प्रकार चंद्रमा के पीछे-पीछे किरणें चलती हैं, उसी प्रकार राजा के पीछे-पीछे अंगनाएं चल रही थीं । उस वन-विहार के समय एक दूसरे के चित्त में उत्पन्न हर्ष का सागर उछल रहा था ।
६७. पञ्चवर्णमयपुष्पभङ्गियुक्तालवृन्तवरवीजनेन सः । अन्वभूत् प्रणयिनी करिणा, चामरादपि सुखं युवाऽधिकम् ॥
चन्द्रमा इव महीपतिव्यं भादङ्गनास्तदनुगा इव त्विषः । उल्लास च तदा परस्परं चित्तभूप्रमदपाथसां पतिः ॥
कान्ताएं अपने हाथों से पांच वर्ण वाले पुष्पों की सजावट युक्त तालवृन्त के पंखे झल रही थीं । उस समय युवक भरत ने चंवर डुलाने से उत्पन्न सुख से भी अधिक सुख का अनुभव किया ।
६८.
६६.
राजचिह्न वाले मनोज्ञ छत्र से भी अधिक प्रमोद को प्रेरित करती हुई एक सुन्दरी ने सभी जाति वाले पुष्पों की शोभा से युक्त छत्र को भरत के मस्तक पर ताना ।
७०.
सर्वजातिकुसुमश्रियाञ्चितं, छत्रमस्य शिरसि व्यधाद् वधूः । राजचिन्हललितातपत्रतश्चाधिकं प्रणुदती मुदां भरम् ॥
प्रस्थितोऽथ जलकेलये नृपः सावरोध' वनिताजनस्ततः । फुल्लपङ्कजदलाननश्रियं राजहंस इव केलिपल्वलम् ॥ पद्मिनीनिचयसञ्चितोत्सवं राजहंसविनिषेवितान्तिकम् । ऊमपाणिमिलनोत्सुकं रयात्, स्पर्धमानमिव भूमिवल्लभम् ।।
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१. चित्तभू.... — मानसोत्पन्नहर्षाब्धिः ।
२. अवरोधः - अन्तःपुर (अन्तः पुरमवरोधोवरोधनम् - अभि० ३।३९१ ) ३. केलिपल्वलम् — क्रीडा-सरोवर ।
--युग्मम् ।