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सप्तदशः सर्गः
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उसके पश्चात् शौर्य के उत्कर्ष-से उत्कण्ठित और महान् शक्तिशाली बाहुबली देखते-देखते भरत के सामने उपस्थित हो गए । उस समय यह तर्कणा हो रही थी-'क्या यह उद्वेलित समुद्र पर्वत-युक्त समूची पृथ्वी को शीघ्र आक्रान्त करेगा ?' ३८. तो राजद्विरदवरौ निबद्धमुष्टिप्रोद्दामैकतमरदौ स्फुरन्मदाढ्यौ ।
आयुक्तां भुजयुगली परस्परेण , वातूलोल्ललदवलाविव क्षयान्तः॥
उन दोनों राज-हस्तियों ने अपनी-अपनी मुट्ठियां तान लीं ! तब वे एक दांत वाले मदोन्मत्त हाथी की भांति क्षयकालीन वात्याचक्र की तरह उछलते हुए परस्पर एक दूसरे के सामने खड़े हो कर भुजाएं उठालीं। ३६. नन्वेतौ जिनवरतो जनुः स्म यातश्चन्द्रार्काविव जलधेर्महाप्रभाढ्यौ ।
कुर्वात इति कलहं कृते धरित्र्या , लौल्यं हि व्यपनयते विवेकनेत्रम् ॥ ४०. का हानिर्भरतपतेर्यदेष बन्धुघ्नो , लोभादयमपि मानतो न नन्ता। यद्ज्येष्ठं' क्षपयति किं कषायवह्निर्न स्नेहं त्विंति विबुधैस्तदा व्यकिं ॥
-युग्मम् । देवताओं ने तब यह सोचा--'जैसे समुद्र से महान् तेजस्वी सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई है, वैसे ही इन दोनों की उत्पत्ति जिनदेव ऋषभ से हुई है । ये भूमी के लिए युद्ध कर रहे हैं, क्योंकि लोलुपता विवेक की आंख को नष्ट कर देती है।'
'महाराज भरंत के क्या कमी है ? फिर भी वे लोभ के वशीभूत होकर बन्धु की घात करने के लिए उद्यत हो गए। यह बाहुबली भी अहंकारवश बड़े भाई के सामने नत नहीं हो रहा है । क्या कषाय की आग स्नेह को क्षीण नहीं कर देती ?' ४१. तो धूलील लिततनू विकीर्णकेशौ , स्वेदोद्यज्जलकणराजिमालपट्टी।
रेजाते रणभुवि शैशवकलीलास्मर्ताराविव न हि विस्मरेत् स्मृतं यत् ॥ उस समय रणभूमी में उनके शरीर धूल से धूसरित थे , केश बिखरे हुए थे। उनके भालपट्ट पर स्वेद की बूंदें छलक रही थीं। वे बचपन की लीला को याद करते हुए-से प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि जो स्मृत है उसे भूलना नहीं चाहिए । ४२. शंबेना'चलमिव नायकः सुराणां , चक्रेशो द्रढिमजुषाऽथ मुष्टिना तम् ।
चण्डत्वादुरसि जघान सोऽपि जज्ञ, वैधुर्योपचितवपुस्तदीयघातात् ॥ जैसे देवताओं का नायक इन्द्र वज्र से पर्वत पर प्रहार करता है वैसे ही चक्रवर्ती
१. यद्वेषं इत्यपि पाठः। २. शंबः–वज़ (अभि० २।९४) .. .