________________
३३४
भरतबाहुबलि महाकाव्यम्
३२. इत्युच्चैः खगुणमयं बभूव विश्वं चातङ्कातिशयमयं च मुक्तकृत्यम् । वेडाभिर्वृषभजिनाधिराजसून्वोः शूरत्वोच्छ्वसित कचाभिराममूर्ध्नाः ॥
,
अपने पराक्रम द्वारा उठे हुए केशों से सुन्दर मस्तक वाले ऋषभदेव के दोनों पुत्रभरत और बाहुबली के उच्च सिंहनादों से सारा विश्व शब्दमय, अतिशय आतंकमय और कार्यमुक्त हो गया ।
1
३३. पर्यायादथ भरतेश सिंहनादस्तत् सिंहारवनिवहैः पिधीयतेस्म । पायोरिव तुहिनद्युति' प्रकाशः, कल्लोलैरिव जलधेः सरित्प्रवाहः ॥
चक्रवर्ती भरत का सिंहनाद चारों ओर फैल गया । वह बाहुबली के सिंहनादों के समूह से वैसे ही ढंका जा रहा था, मंद होता जा रहा था जैसे चन्द्रमा का प्रकाश बादलों से और समुद्र में मिलने वाला नदी का प्रवाह समुद्र के कल्लोलों से ढंक जाता है ।
३४. चक्रेशः श्रमवशतो निमील्य नेत्रे, अध्यास्ते क्षणमथ यावदाहं तावत् । इत्येनं स जयरमोत्सुकै कचित्तः, को भ्रात ! स्तव हृदयेऽधुना विमर्शः ?
३५.
.
चक्रवर्ती भरत श्रम से थककर क्षण भर के लिए आंखें बंद कर जब विश्राम के लिए नीचे बैठ गए तव विजयलक्ष्मी को पाने के लिए उत्सुक मनं वाले बाहुबली ने उनसे कहा 'भाई ! आपके मन में अभी क्या विमर्श हो रहा है ? ' .
३७.
"
सामान्यं वचनरणं त्ववेहि राजन् ! जेयत्वं तदितरत्र नैव किञ्चित् । यावन्नो भवतितरां शरीरभङ्गः, किं वीरैर्युधि विजयोऽत्र तावदाप्यः ॥
'राजन् ! वचन का युद्ध सामान्य युद्ध है । इसमें जीत जाना कुछ भी नहीं है । युद्ध में जब तक शरीर का भंग नहीं होता, तब तक वीरों के लिए विजय ही क्या है ?'
३६.
पादिति सहजस्य' सार्वभौमस्तास्राक्षः परिकर राजिताङ्गयष्टिः । fi मेरुश्चपलता सबाहुकूटस्त्रं लोक्याक्रमणकृते त्विति व्यतिक ॥।
अपने भाई बाहुबली के इस आक्षेप से भरत चक्रवर्ती की आंखें लाल हो गईं । वे पालथी की मुद्रा में बैठे थे । उन्होंने यह वितर्कणा की - 'क्या बाहुरूपी शिखर से युक्त यह मेरु पर्वत (बाहुबली) तीनों लोकों पर आक्रमण करने के लिए चपलता से उद्यत हुआ है ?"
आलोकाद बहलिपतिस्ततोस्य शौर्योत्कर्षोत्कः प्रबलबलः पुरोऽधितस्थौ । उलः किमयमपां निधिः समन्तादाक्रान्ता सगिरिमहीमितीरितो द्राक् ॥
१. तुहिनद्युतिः - चन्द्रमा ।
२. सहज: - भाई (‘''सगर्भसहजा अपि - अभि० ३।२१५ )
३. परिकरः - पालथी ( पर्यंस्तिका परिकरः - अभि० ३ | ३४३ )