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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६२. न पृथग्जनवत् क्षितीश्वरो , दधते दैन्यभराद् दयालुताम् ।
सदयस्त्वयमित्युदोरणादवजानन्ति जना रयादिमम् ॥
सामान्य व्यक्तियों की भांति राजा दीनता पर दयालुता नहीं दिखाते । क्योंकि 'यह राजा तो दयालु है'.. ऐसा कहकर लोग उसकी शीघ्र ही अवहेलना करने लग जाते हैं ।
६३.
वसुधाधिपतेर्वचःशरा , उपलीभूय न येरुरीकृताः । मृदुता न हि तेषु सांप्रतं , घनटंकी भवतीह तन्नृपः॥
जिन व्यक्तियों ने पाषाण बनकर राजा के वचन-रूपी बाणों को नहीं झेला, उनके प्रति मृदुता उचित नहीं होती । उनके प्रति राजा घनटंकी-पाषाण को चीरने वाली छेनी की तरह हो जाए।
६४. स्वजनैर्न च बान्धवैर्न वा , न च वाहैः पवनातिपातिभिः । ___विजयेन विशिष्यते नृपो , महसेवात्र मणिमहानपि ॥
राजा अपने स्वजनों, बन्धुओं और वायु-वेग से चलनेवाले घोड़ों से विशिष्ट नहीं होता, किन्तु वह विशिष्ट होता है अपनी विजय से। जैसे लोक में महान् मणि भी अपने तेज से ही विशिष्ट होता है।
६५. विनिहत्य रणाङ्गणागतं , त्वपि बन्धुं जयमर्जयेन्नपः।
कलयेद् ग्रहकान्तिसंहृतेः, किमु तेजस्विवरत्व मंशुमान् ॥
समरांगण में आए हुए व्यक्ति को, भले फिर वह अपना भाई भी हो, मारकर राजा को जय अर्जित करनी चाहिए। मैं वितर्क करता हूँ कि ग्रहों की कांति का संहरण करने के कारण ही सूर्य तेजस्विता को प्राप्त होता है।
६६. अनुनीतिमतां वरः क्वचित् , क्वचिदीर्ष्यालुरसौ क्षितीश्वरः ।
अनुनीतिरपेक्षयाञ्चिता , प्रतिपक्षेषु यदायतो श्रिये ॥
वह राजा कहीं अनुनय करने वालों में श्रेष्ठ तो कहीं ईर्ष्यालु (कोप-युक्त) भी बन
१. पृथग्जन:--सामान्य लोग (विवर्णस्तु पृथग्जन:--अभि० ३।५६६)। २. दधते--दधङ धारणे भ्वादि: धातुः । ३. ग्रहकान्तिसंहृतेः-शशांकादिसर्वग्रहतेजःसंहरणात् । ४. किमु इति वितर्के।