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चतुर्थः सर्गः
जाता है । शत्रुओं के प्रति किसी अपेक्षा विशेष से परिपूर्ण अनुनीति को बरतना भविष्य में सुख-संपदा के लिए होता है । (यदि प्रतिपक्ष से कुछ ग्राह्य है तो अनुनीति ही युक्त है)।
६७. सरुषा विनिषेधयेद् भ्र वा , स्वजनान दुर्नयकारिणो नृपः ।
शलभानिव कज्जलध्वजः' , स्फुरदचिःप्रथया विदूरतः ॥
राजा अन्याय पर चलने वाले अपने स्वजनों का रोषपूर्ण भकुटी से निषेध करे । जैसे प्रदीप अपनी स्फुरित अचि की ज्वाला से दूर से ही शलभों का निवारण कर देता है।
६८. अनुनीतिरपि क्षमाभृतां , सविधेरेव समीपगस्य वा।
- फलसंपदिव क्षमारुहामुचिता स्वादुरसश्रियाञ्चिता ॥
राजा की अनुनीति भी पास में रहने वालों के लिए या पास में आने वालों के लिए हो फलप्रद होती है । जैसे वृक्षों की स्वादुरस से युक्त फल-संपदा पाप्र आने वाले व्यक्ति को ही प्राप्त होती है।
६९. यवि भक्तिरिहास्ति बान्धवे , समितं त्वा हरितां जयात्तदा।
. न कथं स्वयमाययावयं , मिलनौत्सुक्ययुषो हि सज्जनाः ॥
यदि बाहुबली की अपने भाई भरत के प्रति भक्ति है तो जब आप चारों दिशाओं में विजय प्राप्त कर आए थे, तब वे स्वयं आपके पास क्यों नहीं आए ? क्योंकि सज्जन व्यक्ति तो मिलने के लिए उत्सुक होते हैं।
७०. अभिषेकविधौ तव त्वयं , समितासंख्यसुरासुरेश्वरे ।
कथमागतवान्न सांप्रतं , स्वजनानां समये हि सङ्गमः ॥
देव ! आपके अभिषेक-उत्सव में असंख्य देव, असुर और राजा उपस्थित हुए थे किन्तु वे बाहुबली क्यों नहीं आए ? क्योंकि अवसर पर ही स्वजनों का मिलन उचित होता है।
७१. अथ युत्कृषये प्रबोधितश्चरसंप्रेषणजितारवैः।
प्रथमं भरतायमुद्धतो , जलदेनेव कृषीबलः कथम् ? १. कज्जलध्वजः-दीपक (प्रदीप: कज्जलध्वजः)-अभि ० ३।३५०) - २. कृषीबल:-किसान (हली कृषिककार्षको । कृषिबलोऽपि-अभि ० ३।५५४)