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चतुर्थः सर्गः
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प्रेम के वशीभूत होकर. राजा यदि अन्याय पर चलने वाले अपने निजी व्यक्ति को बढावा देता है तो वह गुण के लिए नहीं होता। जैसे शरीर के भीतर रहता हुआ भी विकृत रोग क्या गुण के लिए हो सकता है ? कभी नहीं।
५८. नपतिर्न सखेति वाक्यतः , सचिवाद्या अपि बिभ्यति ध्रुवम् ।
पृथुलज्वलदुनतेजसो , दवधूमध्वजतो गजा इव ॥
'राजा किसी का मित्र नहीं होता'- इस उक्ति के आधार पर सचिव आदि सभी व्यक्ति उससे सदा उसी प्रकार भय खाते हैं जिस प्रकार जंगल में विशाल पैमाने पर प्रदीप्त उग्र तेज वाली दावाग्नि से हाथी भय खाते हैं।
५६. बहवो नृपसंपदथिनो , बहवश्चापि खला भुवस्तले ।
न हि तेषु महीभुजा स्वयं, प्रविधेयो गतशङ्कसंस्तवः ।।
इस संसार में अनेक व्यक्ति राजाओं को संपदा के अभिलाषी हैं और अनेक व्यक्ति दुर्जन हैं । राजा को स्वयं उन व्यक्तियों के साथ निःशंक होकर परिचय नहीं करना चाहिए।
६०. चकते प्रतिपक्षलक्षतो , गजयूथान्न हि केसरीव यः ।
.. स हि राज्यमखण्डविक्रमः, परिभुझते ह्यभयः श्रियां पदम् ॥
जो राजा लाखों शत्रुओं से भयभीत नहीं होता, वही अखंड पराक्रमी राजा राज्य का उपभोग कर सकता है। जैसे गजयूथ से नहीं डरने वाला केसरी वन-संपदा का उपभोग करता है। क्योंकि अभय ही संपदा का स्थान है।
६१. अबलोऽपि रिपुमहीभुजा , हृदये शङ्कुरिवाभिमन्यताम् ।
उदयन्नपि कुञ्जराशनाङ्कुरलेशो' न हि कि विहारभित् ॥
राजा को चाहिए कि वह शक्तिहीन शत्रु को भी हृदय में शल्य की भांति माने । प्रासाद में उगता हुआ पीपल के वृक्ष का अंकुर क्या सारे प्रासाद को नष्ट नहीं कर देता?
१. दवधूमध्वजः-दावाग्नि । २. चकते-बिभेति । ३. कुञ्जराशन:-पीपल का वृक्ष (पिप्पलोश्वत्थः श्रीवृक्षः कुञ्जराशन:-अभि ० ४।१९७) ४. विहारभित्--प्रासादपातकः ।