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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हृदय से उठे हुए अहंकार के रजःकण कोप रूपी पवन से वीजित होकर प्रेम सुधा के वीचि-संचय को क्षण में ही मलिन कीचड़ से भर देते हैं ।
५३. वसुधेयमपीहते पति , न हि बन्धुप्रणयादिविह्वलम् ।
प्रणयीह मदीहकः कथं , त्वितरत्रेति तदीयतर्कणात् ॥
यह पृथ्वी भी भाई के प्रेम से विह्वल हुए व्यक्ति को स्वामी के रूप में नहीं चाहती। क्योंकि वह यह तर्क उपस्थित करती है कि जो दूसरे बन्धु आदि जनों में अनुरक्त है, वह मेरा प्रणयी कैसे हो सकता है ?
५४.
प्रणयो यदुपाधिमत्तया , परिहीयेत दिने दिनेऽधिकम् । अमृताम्बुनिधेरपांभरं , किमु न श्यामयते मषीचय: ?
उपाधिमत्ता (छलना) से प्रेम प्रतिदिन क्षीण होता चला जाता है । क्या अमृत के समुद्र क पानी को स्याही का ढेर श्यामल नहीं कर देता ?
५५. नृपतेः स्वजनाश्च बान्धवा , बहवो नोचित एषु संस्तवः ।
अवमन्वत एव संस्तुता , यदधीशं जरिणं यथाऽजराः॥
राजाओं के स्वजन और बन्धु अनेक होते हैं किन्तु उनके साथ परिचय करना उचित नहीं है । क्योंकि वे परिचित होकर अपने स्वामी की अवमानना करते हैं जैसे युवक बूढ़ों की अवमानना करते हैं ।
५६.
अपि दुर्नयकारिणं निजं , नृपतिः प्रीतिभरान्न बाधते । प्रणये कलहो न सांप्रतं, वसुधाधीश इवाऽनयच्छलः ॥
दूसरी बात यह है कि निजी व्यक्ति यदि अन्याय भी करता है तो राजा प्रीति की अधिकता के कारण उसे रोक नहीं पाता। क्योंकि प्रेम में कलह उचित नहीं होता जैसे राजा में अनीति या छल उचित नहीं होता। .
५७. प्रणयस्य वशंवदो नृपः , स्वजनं दुर्नयिनं विवर्धयेत ।
निवसन्नपि विग्रहान्तरे , विकृतो व्याधिरलं गुणाय किम् ?
१. ईहक:-वाञ्छकः। २. प्रीतिभरात्-स्नेहातिशयात् । ३. यथा वसुधाधीशे—पार्थिवे अनयः-छद्म न युक्तम्।