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________________ चतुर्थः सर्गः ८१ भूमंडल के स्वामी हैं। वह सेना से रिक्त है और आपके पास अतिरिक्त सेना है (वह बल से रिक्त है और आप अतिरिक्त बल वाले हैं) यही तो आप दोनों में स्पष्ट अन्तर है। ४८. अथवार्षभितेजसा भरे , बलवत्ता किमु चित्रकारिणी। जलधेर्लहरीचयोच्चताविषये कोपि न विस्मयो महान् ॥ अथवा ऋषभ के कुल में उत्पन्न व्यक्तियों के तेजस्वी जीवन में बलवत्ता हो तो वह आश्चर्य ही क्या है ? समुद्र की लहरें यदि ऊँची होती हैं तो उसमें कोई महान् विस्मय नहीं होता। विनिवेश्य विनिजे पदे , बलिनं त्वां परिमाव्यं नाभिसः । व्रतमाददिवांस्ततोमवानिह सौभ्रात्रमलूलुपन्न हि॥ नाभि के पुत्र स्वामी ऋषभ ने आपको बलशाली जाना इसलिए अपने पद पर पापको स्थापित कर वे प्रवजित हो गए। इसीलिए आपने बन्धुता का लोप नहीं किया। ५०. प्रणयात् त्वमजूहवस्तरी', निजबन्धुं न स पागतः स्वयम् । ___ न च चारपुरोभिमानवानवुनिन्येऽनुनयो हि नेदृशाम् ॥ प्रेम के कारण ही आपने अपने भाई को बुलाया। वे स्वयं नहीं पाए । वे इतने अभिमानी हैं कि दूत के समक्ष भी उन्होंने अपना अनुनय नहीं दिखाया। ऐसे अहंकारी व्यक्तियों का कैसा विनय ? ५१. प्रणयस्त्वयि नाभिभूपसूजननाकाशदिनेश! यादृशः । न हि तादृश एव बान्धवे , धृतये हि प्रणयो द्विपक्षतः ॥ . हे ऋषभ वंश रूपी आकाश के सूर्य ! आपमें जैसा प्रेम है वैसा प्रेम आपके भाई में नहीं हैं । दोनों ओर से होने वाला प्रेम ही सुख के लिए होता है। ५२. प्रणयामृतवीचिसञ्चयं , स्मयरेणुहूं दयस्थलीभवा । किल कोपसमीरणोत्थिता , कुरुते म्लानिमपङ्किल' क्षणात् ।। १. अजूहवस्तराम्--प्राकारयामासिथ । २. धृतये--सुखाय। ३. म्लानिमपङ्किलं—मालिन्यकर्दमाढ्यम् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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