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करद्वयीचालितचामरौघपाञ्चालिका शाश्वतताण्डवाढ्यम् । तुलीकृतप्राक्चरमाद्रिलक्ष्मि, चन्द्रोपलश्याममणिप्रभाभिः ॥ २५. विचित्रचित्रापितचित्तचित्रं दीप्रप्रभाजालहसद्विमानम् । कल्याणशैलोन्नतजातरूपभित्तिद्युतिव्रातहृतान्धकारम् ॥ शृङ्गाग्रदेशापितहेमकुम्भं, स्फुरत्पताकापटकिङ्किणीजुक्' । महामणिस्तम्भविनिर्यदंशुचरिष्णुचामीकरतोरणाङ्कम् ॥ कल्पद्र ुमच्छायतिरोहितार्क रत्नोष्णरश्मि ज्वलनातिरिक्तम् । भूपीठन : क्वचिदिन्द्रनीलैर्द सार्क कन्या जलवीचिशङ्कम् ॥ चन्द्रोदयोल्लासितमण्डपश्रि, नेत्रोत्सवारम्भिगवाक्ष देशम् ।. निर्णिक्त' मुक्ताफलक्लृप्तजालं ददर्श तीर्थेशगृहं नरेशः ॥
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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
महाराज भरत ने ऋषभदेव के मन्दिर को देखा । वहाँ दोनों हाथों से चामरों को डुलती हुई पुतलियाँ सदा नृत्य करती थीं । चन्द्रकान्त और वैडूर्य रत्नों की प्रभान से वह मंदिर उदयाचल और अस्ताचल की शोभा को सदृश कर रहा था ।
— पञ्चभिः कुलकम् ।
उस मंदिर के विविध आलेख मन को विस्मित करने वाले थे । वहाँ के दीपकों का कांति-समूह देवलोक को भी पराभूत कर रहा था । सुमेरु पर्वत की भाँति उन्नत स्वर्ण भित्तियों की द्युति से वहाँ का सारा अंधकार नष्ट हो रहा था ।
उस मंदिर के शिखर पर स्वर्णकलश चढ़ा हुआ था। छोटी घंटिकाओं (घुघुरुओं) से युक्त ध्वजा शिखर पर फहरा रही थी । वह मंदिर मणिमय विशाल स्तंभों से निकलने वाली किरणों से चमकते हुए स्वर्ण के तोरण से युक्त था ।
३. किङ्किणी - घुघुरू ( किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका - अभि० ३/३२६ )
४. अर्करत्नं - सूर्यमणि । उष्णरश्मिः - सूर्य ।
वह मंदिर कल्पवृक्ष की छाया से तिरोहित था । अतः सूर्य सूर्यकांत मणि में ज्वलन पैदा नहीं कर पा रहा था । कहीं-कहीं भूतल पर जड़े हुए इन्द्रनील रत्नों के कारण यमुना नदी की तरंगों की आशंका पैदा हो जाती थी । .
वह मंदिर चन्द्रमा के उदय से उल्लसित मण्डप की शोभा की भाँति सुशोभित था ।
१. पाञ्चालिका - पुतली ( सालभञ्जी पाञ्चालिका च पुत्रिका - अभि०४/८० )
२. श्याममणि : - वैडूर्य रत्न (पंजिका पत्र ३८ )
५. अर्ककन्या - यमुना ।
६. नणिक्तं --- स्वच्छ, शोधित (निर्णिक्तं शोधितं मृष्टम् - अभि० ६/७३ )