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दशमः सर्गः
१६१ 'भगवन् ! संसार रूपी दावाग्नि को बुझाने में सक्षम तुम ही पानी बरसाने वाले मेष हो। जिनेन्द्र ! तुम ही पाप के समुद्र को सुखाने में निपुण अगस्त्य ऋषि हो।'
२०. त्वमेव नैयायिकवाकप्रपञ्चविभुः प्रमेयोऽसि लसत्प्रताप !।
त्वमेव भोक्ता शिवसंपदो हि , वेदान्तसिद्धान्तमताभितळ ! ॥
'हे तेजस्विन् ! नैयायिक सिद्धान्त के अनुसार तुम विभु–सर्वव्यापी और प्रमेय-प्रमिति के विषय हो। हे वेदान्त सिद्धान्तमत से अभितयं ! तुम ही मोक्ष संपदा के भोक्ता हो।'
२१. त्वमेव मोक्ता भवदुःखराशेस्त्वमेव तीर्णः कलि'वारिराशिम् ।
त्वमेव चन्द्रस्तरणिस्त्वमेव , तमोहरत्वाज्जगदीश ! तात ! ॥
'देव ! तुम ही संसार के दुःखों से मुक्त कराने वाले हो। तुम विवाद के समुद्र को तर गए हो। हे जगदीश ! अन्धकार का नाश करने के कारण तुम ही चन्द्रमा हो और तुम ही सूर्य हो ।'
२२. दुरुतरोऽयं भववारिनाथस्त्वयैव तार्यः सकषायमीनः ।
मनोभवोल्लोलभरातिभीष्मो , वोहित्थकेनेव' युगादिदेव ! ॥
'हे युगादिदेव ! यह संसार-समुद्र कषाय रूपी मत्स्यों से भरा पड़ा है। यह कामवासना के कल्लोलों से अत्यन्त दारुण और दुरुत्तर है । देव ! तुम ही नौका बनकर प्राणियों को इससे पार पहुँचा सकते हो।'
२३.. . स्तुत्वा च नत्वा च युगादिदेवममन्दमामोदमुवाह भूपः । ___निस्तोकलोकस्पृहणीयभाव , पीयूषधामानमिव प्रदोषः ।
ऋषभदेव की स्तुति और वन्दना कर महाराज भरत वैसे ही अत्यन्त प्रानन्दित हो उठे जैसे प्रदोष (संध्या) समग्रलोक में कमनीय स्वरूप वाले चन्द्रमा को पाकर आनन्दित हो उठता है।
१. कलि:-युद्ध, विवाद (युद्धं तु संख्यं कलि:-अभि० ३.४६०) २. वोहित्थं-नौका (वोहित्थं वहनं पोतः-अभि० ३।५४०) ३. द्वौ चकारौ तुल्यकालं द्योतयतः । ४. यह विशेषण 'आमोद' के साथ भी लग सकता है। वहाँ 'भाव' का अर्थ होगा अभिप्राय
पञ्जिका पत्र ३८-इदं विशेषणमामोदस्यापि तत्र पक्षे भावोभिप्रायः ।