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________________ दशमः सर्गः १९३ उसके वातायन आंखों में उत्सव पैदा करने वाले थे। मंदिर की जालियां निर्मल मोतियों से निर्मित थीं। २६. धन्यः स येनारचि चैत्यमीदक , तेनैव लक्ष्म्याः फलमप्यवापि । कर्तुः प्रशंसामिति सार्वभौमो , विनिर्ममे क्षोणिभुजां समक्षम् ॥ राजाओं के समक्ष चैत्य के निर्माता की प्रशंसा करते हुए महाराज भरत ने कहा'धन्य है वह जिसने ऐसे चैत्य का निर्माण किया है। उसने ही अपने धन का फल पाया है।' ३०. विहारमध्ये विजहार राजा , पदानि रम्याणि विलोकमानः । वसुन्धराधीशपरिच्छदाढ्यः' , स्वर्मेदिनीनाथ इवामराद्रौ ॥ अनेक राजाओं के परिवार से परिवृत महाराज भरत रमणीय स्थानों को देखते हुए चैत्य में वैसे ही घूम रहे थे जैसे इन्द्र मेरु पर्वत पर क्रीड़ा के लिए घूम रहा हो। ३१. आसेदिवांसं मणिहेममय्यां , वेद्यामवेदावधृतावधानम् । . मुक्तेः शिलायामिव सिद्धमन्तमहोभरोद्दीपितदिगविभागम् ॥ ३२. कल्याणगौरं वपुरुद्वहन्तं , स्थिरं सुवर्णाद्रिमिवातितुङ्गम् । मन्दाकिनीवीचिभरातिगौरध्यानद्वयीप्रापितचित्तवृत्तिम् ॥ ३३. ललाटपट्टोन्नतिमत्त्वसूचिभाग्यश्रियं भासुरदीप्तिमन्तम् । तेजोभिराशान्तविसारिभिर्दाङ, मुनिस्थितेःपमिवातिदीप्तः॥ . ३४. युवानमिन्दीवरपत्रनेत्रमाजानुबाहुं धृतिकेलिसम ।। शृङ्गारजन्माधिकरूपलक्ष्म्या , वारां निधि वारितवैरिवेगम् ॥ ३५. तृणीकृतस्त्रैणरसं रसस्य , शान्तस्य राजा नवराजधानीम् । विलोक्य विद्याधरसाधुधुर्य , ननाम निम्नोत्तमकायदेशः ॥ –पञ्चभिः कुलकम् । महाराज भरत ने विद्याधर साधु-प्रवर को देखा। उन्हें शिर झुकाकर प्रणाम किया। रत्न और स्वर्णमय स्वच्छ वेदी पर बैठे हुए वे विद्याधर मुनि ऐसे लग रहे थे मानो कि १. परिच्छद:-परिवार (परिच्छदः परिबर्ह:-अभि० ३।३८०) २. अमराद्रिः--मेरुपर्वत। ३. अवेदावधृतावधानम्--अवेदेषु-सिद्धषु, अवधृतं--आरोपितं, अवधानं-समाधानं, येन, . - असो, तम् । ४. आजानुबाहुँ–जानुविलंबिभुजद्वयम् । ५. पाठान्तरं--नम्रोत्तम'"।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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