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भरत बाहुबलिमहाकाव्यम्
सिद्ध पुरुष मुक्तिशिला पर बैठे हों । वे सिद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित किये हुए थे । अपने भीतर से निकलने वाले किरण-समूहों से दिग्- विभागों को प्रकाशित कर रहे थे ।
उनका शरीर स्वर्ण की भाँति गौर वर्ण वाला था । वे अत्यन्त उन्नत और मेरुपर्वत की भाँति अडोल थे । उनका चित्त गंगा की तरंगों की तरह शुभ्र धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान में लीन था ।
उनका उन्नत ललाट भाग्य रूपी लक्ष्मी की सूचना दे रहा था । वे देदीप्यमानं, मनोज्ञ, अत्यन्त तेजस्वी, दिगन्तों में फैलने वाली तेज राशि से युक्त और मुनि-मर्यादा के लिए दीपक के समान थे ।
वे मुनि तरुण थे । उनकी आँखें कमल-पत्र के समान विशाल थीं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी थीं । वे धैर्य के क्रीडास्थल और कामदेव से भी अधिक रूपलक्ष्मी के. समुद्र थे । उन्होंने वैरियों के प्रवाह को निवारित कर दिया था ।
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उन्होंने स्त्रियों के प्रति होने वाली आसक्ति को नष्ट कर डाला था और वे शान्तरस की नई राजधानी के समान थे ।
३६.
नत्वाथ साधुं निषसाद भूपः पुरो धरोत्सङ्गमनू नभक्तिः ।
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न चौचिताधान विचक्षणत्वं', सन्तः प्रभुत्वादिह विस्मरन्ति ॥
महाराज भरत परिपूर्ण भक्ति से मुनि को नमस्कार कर उनके आगे पृथ्वी की गोद में बैठ गए । महान् व्यक्ति अपनी प्रभुता के कारण योग्य कार्य करने की निपुणता को कभी नहीं भूलते ।
३७. प्रज्ञावतां प्राग्रह स्तमूचे पुरावलोकादुपलक्ष्य चत्री ।
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दृष्टं श्रुतं वस्तु न विस्मरन्ति मनस्विनः सर्वविदां हि तुल्याः ।।
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प्रज्ञावान् व्यक्तियों में श्रेष्ठ चक्रवर्त्ती भरत ने पहले देखे हुए होने के कारण, विद्याधर मुनि को पहचान कर कुछ कहा । क्योंकि मनस्वी पुरुष दृष्ट और श्रुत वस्तु को कभी नहीं भूलते। वे सर्वज्ञ-तुल्य होते हैं ।
१. औचिताधानविचक्षणत्वं — योग्यताकरणचातुर्यम् ।
२. प्राग्रहरः - श्रेष्ठ, प्रधान (अनुत्तरं प्रागहरं प्रवेकं – अभि० ६ | ७४ )