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________________ दशमः सर्गः १६५ ३८. दृष्टः पुरा त्वं विजयाशैले , विद्याधराधीश ! नमेरनीके। . भटा मम स्वभुजचण्डिमानमद्यापि संस्मृत्य शिरो धुनन्ति ॥ भरत ने कहा-'हे विद्याधरों के अधिपति ! मैंने आपको इससे पूर्व वैताढ्य पर्वत पर राजा नमि की सेना में देखा था। आज भी मेरे सुभट आपकी भुजाओं की प्रचण्ड शक्ति का स्मरण कर अपने शिर को धुनने लग जाते हैं।' ३९. अंसौ त्वदीयौ विजयप्रशस्तेः , स्तम्भावभूतां भरतार्शले । सर्वत्र विद्याधरराजलक्ष्मीकरेणुकासंयमनाय सज्जौ ॥ 'मुने | आपके ये दोनों बाहु वैताढ्य पर्वत पर विजय-प्रशस्ति के स्तम्भ थे। ये सर्वत्र विद्याधरों की राज्यलक्ष्मी रूपी हथिनी को नियंत्रित करने के लिए सज्जित थे।' ४०. युवासि विद्याधरमेदिनीश ! , वैराग्यरङ्ग समभूत् कुतस्ते । रसाधिराज' हि विना कुतोऽत्र , सिद्धिर्भविष्यत्यनघा'ऽर्जुनस्य' ॥ 'हे विद्याधरनाथ ! आप अभी युवा हैं। आपको वैराग्य का रंग कैसे लगा? क्योंकि पारद के बिना स्वर्ण की निर्मल सिद्धि कहाँ से हो सकती है ?' ४१. . विद्याभृतामोश ! वदामि कि ते , स्वजन्मनः प्रापि फलं त्वयैव । - यन्मादृशैरत्र हृदाप्यवाह्य, स्थलैरिवाम्भः सरसीवरेण ॥ 'हे विद्याधरनाथ ! मैं आपको क्या कहूं, आपने ही अपने जन्म का यथार्थ फल प्राप्त किया है। मेरे जैसा व्यक्ति मुनिपन को मन से भी वहन नहीं कर सकता, जैसे ऊँची भूमि पर स्थित तालाब पानी को वहन नहीं कर सकता।' ४२. केपीह भोगानसतः कमन्ते , सतोऽपि केचित् परिहाय शान्ताः । तेषामपूर्वे सुरराजवन्द्यास्तानेव कैवल्यवधूरपीच्छेत् ॥ 'विचित्र है यह संसार ! यहाँ कुछ मनुष्य अप्राप्त भोगों की कामना करते हैं और कुछ मनुष्य प्राप्त भोगों को छोड़कर उपशान्त हो जाते हैं। इनमें अपूर्व-दूसरे प्रकार १. रसाधिराज:-पारद . २. अनघा-पवित्रा। ३. अर्जुनं-स्वर्ण (अर्जुननिष्ककार्तस्वरकर्बुराणि-अभि० ४११०) ४. अपूर्वे-अप्रथमा, अन्न वृत्ते प्रथमं भोगवांछका उक्ताः, तदन्ये त्यागिनः।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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