SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् के पुरुष (जो प्राप्त भोगों का त्याग करते हैं) वे इन्द्रों द्वारा पूजनीय होते हैं और उन्हें ही कैवल्य रूपी वधू वरण करना चाहती है।' ४३. धिगस्तु तृष्णातरलं तदीयं , मनो मनोजन्म'पिशाचसङ्गात् । लीलावतीभिः परिभूय येषां , वैराग्यलीला दलिता क्षणेन ॥ 'मुने ! स्त्रियों ने कामदेव रूपी पिशाच के संग से जिन पुरुषों के मन को पराभूत कर उनकी वैराग्यलीला को क्षण भर में ही नष्ट कर डाला, उन पुरुषों के तृष्णा-तरलित. मन को धिक्कार है।' ४४. अङ्गारधानी स्तपसां वधस्त्वं , हित्वा तपस्वित्वमुरीचकर्थ । तच्छलाघनीयोऽत्र भवानशेषैस्त्यागी न केनाप्यवमाननीयः ॥ 'मुने ! तप को जलाने के लिए अंगीठी के सदृश वधूओं का त्यागकर आप तपस्वी बने हैं। आप समस्त पुरुषों द्वारा श्लाघनीय हैं। किसी भी व्यक्ति को त्यागी पुरुष की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।' ' ४५. तारुण्यलीलाः सकला अपि त्वां , रुन्धन्ति नो भोरलताप्रतानः। इतीह चित्रं हृदये न माति , ममाऽपि विद्याधरनाग ! किञ्चित् ॥ 'हे विद्याधरों में श्रेष्ठ ! मेरे हृदय में यह आश्चर्य नहीं समा रहा है कि यौवन की समस्त लीलाएँ, स्त्रियों के लता वितान में, आपको आच्छादित क्यों नहीं करती ? आपको मुनि-मार्ग में जाने से क्यों नहीं रोकती ?' ४६. शौर्याब्जिनीखण्डसरोवरस्त्वमत्रापि कंदर्पशरापनुन्न्य। शक्तो हि सर्वत्र परां विभूषां , लभेत लक्ष्मीमिव वासुदेवः ॥ 'मुने | आप इस तरुण अवस्था में पराक्रम रूपी कमलिनियों के सरोवर के समान होकर भी कामदेव के बाणों का भेदन करने में समर्थ हैं, जैसे वासुदेव सर्वत्र लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, वैसे ही आप सर्वत्र परम शोभा को प्राप्त कर रहे हैं।' ४७. त्वच्चित्तवृत्तिप्रथमाद्रिचूलां , शमांशुमाली समुदेत्युपेत्य । ततोस्मदीयं हृदयारविन्दं , विकासितामेति विलोकनेन ॥ १. मनोजन्म-कामदेव । २. अङ्गारधानी–अंगीठी (हसन्यङ्गाराच्छकटीधानीपात्यो हसन्तिका-अभि० ४।८६)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy