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तृतीयः सर्गः
६७. भारत्येति प्रवीराणां , समशय्यत तस्य हृत् ।
किं जयो बहलीशस्य , भावी वा भारतो जयः॥
वीरों की इन बातों ने दूत के हृदय में संशय उत्पन्न कर दिया कि विजय बाहुबली की होगी या भरत चक्रवर्ती की ?
६८. किमूनं भरतस्यापि , षट्खण्डजयकारिणः ।
नमतोस्यापि का लज्जा , हठो हि बलवत्तरः ॥
ओह ! छह खण्डों के विजेता भरत के क्या कमी थी और बाहुबली यदि नत हो जाता तो कौन सी लज्जा की बात थी? किन्तु अाग्रह बलवान् होता है ।
६६. कुक्षिपूर्तिमने सोच्चुलुकाचान्तनीरधेः । ।
- तथापि वितता कीत्तिर्यतः कीर्तिप्रिया नृपाः ॥
एक चुल्लू में समुद्र को पी जाने वाले अगत्स्य मुनि का वैसा करने पर भी पेट नहीं भरा, तो भी उनकी कीति बहुत फैली। इसीलिए नृप कोतिप्रिय होते हैं ।
७०. एकछत्रं मम स्वामी , भुवं कर्तास्ति सांप्रतम् ।
त्यक्ताय नकवीरत्वमहंकारो हिदुस्त्यजः ॥ मेरे स्वामी भरत अभी विश्व में एकछत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं और ये बाहुबली अकेले वीर होने के स्वाभिमान को छोड़ना नहीं चाहते। अहंकार दुस्त्यज होता है।
७१. अनयोरप्यहंकारवेश्मरत्नकतेजसि ।
पतङ्गीभवितारोमी ; योद्धारः समराङ्गणे ॥
इस युद्ध में ये सभी योद्धा इन दोनों (भरत-बाहुबली) के अहंकार रूपी दीपक की लौ में शलभ की भांति गिरकर प्राण गंवाने वाले हैं।
७२. एको बाहुबलिर्वीरः , सह्यः केन तरस्विना ।
आवृतस्त्वीदृशैर्वीरैः , समीरैरिव पावकः ॥
अकेले वीर बाहुबली को कौन पराक्रमी योद्धा सहन करेगा ? इस प्रकार के वीरों से परिवृत होकर वे और अधिक दुर्जेय बन जायेंगे। जैसे-अग्नि भयंकर होती है और