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________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वह तेज हवा के योग से और अधिक भयंकर हो जाती है। ७३. स्वस्वामिविजयाश्चयं , हृद्यद्याप्यस्य विद्यते । तद् द्रष्टुमिव तच्चेतस्तेषां शौयं विवेश तत् ॥ अभी भी इसके (दूत के) मन में अपने स्वामी भरत की विजय के प्रति आश्चर्य है। मानो कि उसको देखने के लिए उसके चित्त में बाहुबली के सुभटों का शौर्य प्रवेश कर गया। ७४. सोथ स्वस्वामिनो देशं , चैतन्यमिव योगिराट । चकोर इव शीतांशु , क्रमात् प्रापदनातुरः ॥ वह दूत अनातुर रहता हुआ क्रमशः अपने स्वामी के देश को प्राप्त किया, जैसे योगिराज चैतन्य को और चकोर चन्द्रमा को प्राप्त करता है। . ... ७५. भीतं बाहुबलेर्देशाद् , भयमायातमत्र किम् ? बालाबालजरद्वक्त्रवास्तव्यं स व्यतर्कयत् ॥ दूत ने बालक, जवान और बूढ़े-सभी लोगों के चेहरों पर छाये हुए भय को देखकर यह वितर्क किया कि क्या बाहुबली के देश से डरा हुआ भय यहाँ आ पहुंचा? ७६. तैलबिन्दुरिवाम्भस्सु , दीपज्योतिरिवालये। तत्रातङ्ककृदातङ्कः , सर्वत्र व्यानशेतराम् ॥ जैसे पानी में तैल-बिंदु और प्रासाद में दीपक का प्रकाश फैल जाता है, वैसे ही आतंक पैदा करनेवाला भय सर्वत्र फैल गया। ७७. भयाम्भोनिधिरुनः , प्रावर्तत जनोक्तिभिः । तृतीयारकपर्यन्ते , संवर्त इव सङ्गतः ॥ जैसे तीसरे अर के अन्त में प्रलयकालीन सिन्धु उमड़ पड़ता है वैसे ही जनता की चर्चाओं के द्वारा भय के समुद्र में ज्वार आ गया। ७८. दयितेनानुनीताऽपि , प्रिया विप्रियकारिणम्। .. नैच्छद् बाहुबलेस्त्रासोस्तीत्युक्ता साऽमिलद् वरम् ॥ .
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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