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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
उस सेना में कोई कह रहा है 'तुम यह लो', 'तुम इसे छोड़ो, ''तुम ठहरो,' 'तुम चलो', 'तुम जल्दी 'मेरे पास आओ', 'तुम सज्जित हो जाओ' - इस प्रकार के वचनों से चारों ओर कोलाहल होने लगा ।
६३. निःस्वानसम्मानक तूर्य' नादे रश्वेभहेषा र बृंहितैश्च ।
प्रवर्धमानः सरितामिवौघो, झरः स सिन्धोस्तमुत्ससर्प ॥
उस समय सेना में मंगल वाद्यों, भम्भा, भेरी और बाजाओं के शब्द हो रहे थे । साथसाथ घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों के चिंघाड़ से वे शब्द और अधिक तीव्र हो गए थे । इस प्रकार वह प्रवर्धमान कोलाहल समुद्र की ओर बढ़ा, जैसे निर्झरों से पवर्धमान नदियों का समूह समुद्र की ओर बढ़ता है ।
६४. आणि यो दिक्करिभिः स्वकर्ण तालैकलोलत्वमपास्य दूरात् क्रमेतदित्यहि सुराङ्गनाभिर्ब्रह्माण्डभाण्डं स्फुटतीव यस्तु
दिक्कुंजरों ने अपने कर्णपुट की चपलता को छोड़कर दूर से उस सैन्य- कोलाहल को सुना और देवांगनाओं ने उसे सुनकर वितर्कणा की कि क्या यह ब्रह्माण्ड का भांड पूट रहा है ?
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६५. सितांशु' वाहास्तुमुलेन तेन त्रस्ता इवास्ताद्विगुहां निलीनाः । शीतांशु' लक्ष्मीरपि राजवक्त्रं, भियेव लिल्ये त्वकुतोभयं हि ॥
उस तुमुल नाद से भयभीत होकर चन्द्रमा के अश्व, अस्ताचल की गुफा में छिप गए । चन्द्रमा की शोभा ने भी मानो भय के कारण निर्भीक राजा के मुख का आश्रय ले लिया ।
६६.
इयं वराकी विरहे प्रियस्य, मुहुर्मुहू रोदिति चक्रवाको । sara तीक्ष्णद्युतिमाजुहाव ', घनैविरावैश्चरणायुधो ऽपि ॥
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'यह बेचारी चकवी अपने पति के वियोग में बार-बार रो रही है - यह सोचकर मुर्गे तेज शब्दों से सूर्य का आह्वान किया ।
६७. बभूव कान्तानुनयप्रणामैर्न मानमुक्तिनिशि मानिनीनाम् । सा ताम्रचूडेन रुविनेऽनुसैन्य कोलाहलमुच्छलद्भिः ॥
१. निःस्वान --मंगल-वाद्य; भम्भा - नगाडा; आनक - भेरी; तूर्य — बाजा । " २. सितांशु: - चन्द्रमा ( सिता: - श्वेता:, अंशवः - किरणाः सन्ति यस्य सः ) ३. शीतांशुः -- चन्द्रमा (शीता: -- शीतलाः, अशवः -- किरणा:, सन्ति यस्य सः ) ४. आजुहाव - आकारयामास ।
५. चरणायुधः – मुर्गा ( कुक्कुटश्चरणायुधः - अभि० ४ | ३६० )