SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हे मनोज्ञ स्वजन रूपी लक्ष्मी के आलय ! आप ऋतु सम्बन्धी उत्सव की कलना करें। आप चक्रभृत् हैं और बाहुबली के प्रदेश की ओर क्षणभर में प्रस्थान करने के इच्छुक हैं। आप सस्त्रीक हैं और विपक्षियों को गुरुतर भय देने वाले हैं। २६. इति समीरयति ध्वजिनीपती , विनयतो नयतोयधिपारगम् । नपमुपेत्य जगाद स कञ्चुकिक्षितिवरोतिवरोऽत्र तदेति यः॥ सेनापति सुषेण ने महाराज भरत को विनयपूर्वक यह निवेदन किया । इतने में ही अन्तःपुर का श्रष्ठ कंचुकिराज ने न्याय रूपी समुद्र के पारगामी महाराज भरत के पास आकर कहा २७. कुमुदहासवती शरदाश्रिता, क्षितिभुजेति भुजेरितवैरिणा। तव बिति विशिष्य विभूषणं, विधिमतोऽधिमतो दयिताजनः॥ 'राजन ! आप भाग्यशाली हैं। आप द्वारा मान्य आपकी स्त्रियाँ इस विशेष हेतु से अलंकार धारण कर रही हैं कि आपके भुजदंड द्वारा क्षिप्त शत्रु राजा ने कमलिनियों वाली इस शरद् ऋतु का आश्रय ले लिया है। २८. नप ! भवन्तमजः कुसुमस्फुरद्धनुकरोऽनुकरोतु कथञ्चन । रतिरपि त्वदनेकनितम्बिनीनिबहतां वहतां हि पतिव्रता ॥ राजन् ! हाथ में फूलों का धनुष रखने वाला कामदेव आपका अनुकरण (आपकी तुलना) बड़ी कठिनाई से कर पाता है । वह कामदेव आपकी अनेक स्त्रियों के समूह में वास कर रहा है और उसकी पत्नी रति पतिव्रता है, इसलिए वह उसे छोड़कर कहीं नहीं जाती। फलतः रतिसुख आपको ही प्राप्त होता है। . २९. त्वदवरोधजनाद् ऋतुसज्जितात् , क्षितिपराज ! पराजयमश्नुते । त्रिदशराजवधूरपि सांप्रतं , नयनविभ्रमविभ्रमभर्त्सनात् ॥ हे चक्रवर्तिन् ! ऋतु के लिए सज्जित आपके अन्तःपुर की रानियों से इन्द्राणी भी पराजित हो गई है। क्योंकि आपकी रानियों ने उसके कटाक्षों की शोभा को तिरस्कृत कर डाला है। ३० सपदि काचिदधान्मणिनूपुरं , चरणयो रणयोगविचक्षणम् । किमिव बोधयितुं विजयश्रियातिशयितं शयितं मदनं हठात् ॥ राजन् ! किसी कान्ता ने शीघ्रता से अपने पैरों में, शब्द करने में विचक्षण, मणि
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy