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पञ्चमः सर्गः
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नूपुरों को धारण किया । मानो कि वह सुप्त और विजयश्री से भी अधिक प्रिय कामदेव को हठात् जागृत करना चाहती हो ।
३१.
हे भाग्यशालिन् ! किसी कान्ता ने सोने की करधनी पहनी, जिसमें शब्द करने वाले मणियों के घुघुरू लगे हुए थे। उसने उसे अपने पहने हुए नील वस्त्रों से आच्छादित कर दिया फिर भी वह करधनी कामदेव के लिए हितकारी थी, कामवासना को उद्दीप्त करनेवाली थी ।
परिदधेऽथ रणन्मणिशिञ्जिनीं सुभग ! काचन काञ्चनमेखलाम् । परिहितेन मनोभवभूपतेरपि हितां पिहितां सितवाससा ॥
३२. करयुगं च कयाचनं कौतुकादबलया बलयाञ्चितमाददे । भवदतुच्छतमप्रणयोदयाद्, रुचिरया चिरयातसनः शुचा ॥
३३.
राजन् ! चिरकालीन मनो-व्यथा से पीड़ित किसी कान्ता में आपके प्रति अत्यन्त स्नेह जाग उठा । उसने कुतूहलवश अपनी रुचि से दोनों हाथों में कंकण पहन लिए ।
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अधित काचन हारलतां गले, त्वनवमां नवमांसलरोचिषम् । कलमकुम्भततस्तनलम्बिनीं, सुनयना नयनापितकज्जला ॥
राजन् ! कज्जल से आँजी हुई आँखों वाली एक सुनयना सुन्दरी ने अपने गले में हार पहना । वह हार श्रेष्ठ, नवीन और पुष्ट काँतिवाला तथा कलभ के कुंभस्थल की तरह विस्तृत उसके स्तनों तक लम्बा था ।
३४, श्रवणयोस्त्वदनुस्फुटमिच्छती विकचवारिजवारिजवागमम् । न्यधित कांचन कुण्डलमुन्मनोभवसुरं वसुरत्नकरम्बितम् ॥
३५.
किसी सुन्दरी ने अपने कानों में कुण्डल धारण किए । स्वर्ण और रत्न के बने हुए वे कुण्डल कामदेव को उद्दीपित करने वाले थे । वह कामिनी आपसे पूर्व विकस्वर कमल वाले पानी के शीघ्र आगमन की इच्छा कर रही है ।
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नृप ! दधेऽथ कथाचन कान्तरुक्नवतरो बत ! रोपितमन्मथः । उपरिनासिकमध्यधरोष्ठकं वरमणी रमणीजनकान्तया ॥
राजन् ! किसी कान्त ने अधर और ओष्ठ तक लटकने वाली मणि को नाक में धारण
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